श्रीवल्लभ स्वरूप और रसिकाश्रय (भाग 2)
रसिक चरन धूरि लेकर हिय पे ले धार
निभृत रहस्य खुले फिर होवे कृपा अपार
आहा ....कैसा सुंदर स्वरूप है प्यारे राधावल्लभ जू को ॥ जी करे निरखन ही करें बस ॥ पर क्या सुंदर मात्र ही है यो स्वरूप ॥
ना री ये तो महा दुर्लभ महा गहनतम् स्वरूप है निभृतनिकुंज विलासी जू को, जो रसिकाचार्यों ने अपनी अपार करुणा और परम अहेतु की कृपा सों सौंप दीना हमें हमारे कल्याणार्थ ही ॥ अति गहन रस अति गूढ़ स्वरूप श्री प्रियालाल का ॥ निभृत स्थिती का साक्षात् दर्शन हो रहा यहाँ ॥ वे दो रस सिंधु प्रेम पारावार एक हो चुके हैं सुरत पश्चात् ॥ एक तन एक मन एक ही प्राण ये ॥ दो के एक दर्शन यही तो सार है निभृत केली का ॥रति रसपूर्ण रात्रि बीत चुकी है ॥ अब प्रेम की चरम पराकाष्ठा परम एकत्व की स्थिती है यह रूप ॥ मैं हूँ कि तुम हो तुम हो या मैं ।मुझमें ही तुम हो बस और तुममें ही मैं ॥ दोनों और की परम विकलता ने दोनों मन के साथ देहों को भी द्रवित कर एक कर दिया है ॥ यह एकता संसार में होने वाली देहों की एकता जैसी नहीं है प्यारी ॥वहाँ तो माना जाता है , एकत्व की छाया भी नहीं जगत में परंतु श्री प्रियालाल के दिव्य प्रेम राज्य में वास्तविक एकता प्रत्यक्ष है ॥ इसी कारण द्वैत देखने की अभ्यस्त आँखें एकत्व में दोनों को न देख पातीं ॥ श्यामसुन्दर श्री प्रिया में डूब चुके हैं बाहर आना ही नहीं चाहते ।श्री प्रिया ने समा लिया है प्यारे को पूर्ण रूप से ॥ अब दो हैं ही नहीं वहाँ ॥ यही निभृत विलास है जहाँ दोनों एक होकर परस्पर के प्राणों का पोषण कर रहे ॥ निभृत अर्थात् जहाँ द्वैत नहीं ॥दूसरा है ही नहीं वहाँ और हम निभृत में दो को खोज रहे ॥ यदि दो को निरखना है तो कुंज में निकुंज में निहारिये जहाँ युगल रस विहार कर रहे परंतु निभृत उनके प्राणों की प्यास है ॥ निभृत सखियों के हृदय की प्यास है ॥ क्योंकि दोनों परस्पर को सुख देवें यही तृषा तो सखी है ॥ अतःयही निभृत स्थिती श्री ललितादिक सखियों की परम अभिष्ट है ॥ जहाँ श्री प्रियालाल दो रहते ही नहीं ॥ उनकी एकता सखियों की परम तृप्ति है जीवन संजीवनी है ॥ स्वयं युगल की कभी न कम होने वाली गहन तृषा है निभृत ॥इसी हेतु यह नित्य है शाश्वत है परम सेव्य है ॥ युगल का महासुख है यही मिलित स्थिती अर्थात् यही श्री राधावल्लभ जू स्वरूप ॥ जी हां यही तो स्वरूप है उनका स्वरूप अर्थात् अपना निज रूप यही तो है ॥
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