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रस-आनन्द , मृदुला

रस आनन्द प्रेम की सत्ता एकमात्र श्री भगवान् में ही निहीत है । वास्तविक रस या आनन्द केवल वहीं अनुभव किया जा सकता है ॥ उनके अतरिक्त संसार में जहाँ भी इसकी प्रतीति होती है वह वास्तविक नहीं क्षणभंगुर है ॥ क्योंकि वह रस और आनन्द स्वयं हमारे अपने ही हृदय की वस्तु है जो हमें विषय से परावर्तित मात्र होने के कारण विषय से प्राप्त हुयी लगती है ॥ किसी भी व्यक्ति से रस या आनन्द की अनुभूति उससे कभी प्राप्त होती ही नहीं । यह हमारे उस के प्रति आकर्षण के कारण उस पर चित्त की एकाग्रता का परिणाम है ॥ इसी कारण भोग के समय रस और आनन्द की लब्धि होती है ॥ पर भोग से निवृत्त होते ही चित्त की एकाग्रता भंग हो जाती है और अपने ही हृदय से प्राप्त हो रहा रस भंग हो जाता है ॥ और यह लगता है मानो अब उस भोग्य में रस न रहा ॥ मन अब कुछ नया खोजने लगता है ॥ फिर नवीनता का आकर्षण उसे रस प्रदान करता है ॥ अनन्त काल से मनुष्य यही तो करता आ रहा है । जब कोई नवीनता उसके जीवन में आती है तो उसे पाने की आशा ही रस का वर्धिन करती रहती है ॥ परंतु प्राप्ति पर शनैः  शनैः वह रस खोने लगता है और एक समय एसा आता है कि जो व्यक्ति परम सरस लग रहा था वह केवल नीरसता की मूर्ति ही लगने लगता है ॥ यही काम का मूल स्वभाव है ॥ परंतु प्रेम (जो परम दुर्लभ ) वह रस पीना नहीं चाहता वरन देना चाहता है सो कभी उपरत नहीं होता वरन जितना सामिप्य हो और बढता ही है ॥ काम की सीमा है अति नैकट्य होने पर फिर वापस लौटने लगता है परंतु प्रेम जितना सामिप्य प्राप्त हो जावे सदा ऊर्ध्वमान ही रहता है ॥ प्रेम कभी किसी के रूप या गुण पर आश्रित नहीं ॥ प्रेम निज स्वभाव होता है जिसके विकास के लिये प्रेमास्पद के रूप या गुणों की आवश्यकता ही नहीं ॥ यदि किसी के रूप से हमारे हृदय का भाव परिवर्तन होता है तो मान लीजिए वहाँ कभी प्रेम हमें अनुभव ही नहीं हुआ जो अनुभव हुआ वह केवल काम था ॥ रूप बढने पर बढे घटने पर घटे काम को रोग , प्रेम परम उज्जवल जा को न रूप संयोग ॥ प्रेम प्रेमी के हृदय में दृष्टि में होता है जो स्वयं ही प्रेमास्पद मे रूप का गुणों का दर्शन करवाता है । और साथ ही स्वयं में अभाव की अनुभूति देता है ॥ तो अब जब हमें किसी में आकर्षण प्रतीत होवे तो उसे प्रेम का नाम देने से पहले अपने मन की गहराइयों में खोजें कि यह प्रेम है भी या है मात्र काम ॥ तृषित

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