शांत भाव
अनन्त काल से जीव माया मोहित होकर श्री भगवान् से विमुख है ॥ कहीं किसी जन्म में कोई पुण्य उदय होने पर तथा किन्हीं भगवद् जन की कृपा दृष्टि प्राप्त होने पर ही विमुख जीव श्री भगवान् के सन्मुख होता है ॥सन्मुख होने का अर्थ है कि माया के पीछे न भागकर वरन भगवद् मिलन की सहज चाह का उदय होना है ॥ इसी चाह के हृदय में उदित होने पर सहज ही भक्ति महारानी का हृदय में प्रवेश हो जाता है क्योंकि भगवान् तो स्वयं ही सदा से अपने से विरहित जीव की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ भक्ति के उदित होने पर श्री भगवान् से संबंध का भान होता है ॥ सर्वप्रथम जिस भाव संबंध का हृदय में अनुभव होता है वह है शांत भाव ॥ शांत भाव समस्त संबंधों का आधारभूत भाव है ॥ यह अत्यंत महत्वपूर्ण भाव है क्योंकि यही भूमिका है समस्त संबधों की ॥ इसी भाव में मनुष्य को अपने जीव स्वरूप का बोध होता है । इससे पूर्व तो वह स्वयं को देह ही मानता जानता है ॥यही वह प्रथम सोपान है जहाँ स्वयं को अँश तथा श्री भगवान् को अंशी स्वरूप जानता है ॥यहाँ श्रीभगवान् के प्रति सहज आकर्षण जगता है जो अंश का अपने अँशी के प्रति स्वभाविक खिचाव है ॥ भगवद् नाम में ,रूप में ,लीलाओं में ,सहज आकर्षण का बीज प्रस्फुटित होता है ॥ नाम में रस की अनुभूति होने लगती है ॥इस सोपान पर श्रीभगवान् से किसी निजी संबंध की अनुभूति तो नहीं होती परंतु जीव सत्ता का जो सहज अँश स्वरूप है वही हृदय में प्रकाशित होने लगता है ॥ संसारिक विषयों से विरक्ति तथा ज्ञान का (जीव स्वरूप का )अभिर्भाव इसी स्तर पर होता है ॥यहीं नींव है समस्त अग्रगामी संबंधो की क्योंकि हृदय की शुद्धता बिना भक्ति स्थायी नहीं हो सकती ॥ ज्ञान के अभाव में वैराग्य भी स्थायी नहीं होता सो जब तक देह भाव से उपरत होकर माया का स्वरूप श्रीभगवान् का स्वरूप स्पष्ट नहीं होगा तब तक आगे के भाव संबंधों में दृढ़ता नहीं होगी ॥यह आवश्यक नहीं है कि एक जन्म में ही एक से दूसरे भाव की प्राप्ति हो जावे ॥कोई जीव प्रथम भाव पर भी रह सकता है और कोई दूसरे पर भी पहुँच सकता है ॥यह कई जन्मों की आध्यात्मिक यात्रा है जो कई चरणों में पूरी होती है ॥ वर्तमान जन्म में कोई जीव किसी सोपान पर होता है तथा कोई किसी अन्य पर ॥ कौन पीछे से कितनी यात्रा कर आया है यह उसके वर्तमान भाव से अनुमान किया जा सकता है ॥ जहाँ पिछले जन्म में छूटा था यात्रा उसके बाद ही प्रारंभ होगी इस जन्म में ॥ सो वर्तमान में यदि कोई शांत रस के अग्रिम भाव रस अर्थात् दास्य रति पर है तो वह पीछे शांत भाव पार कर चुका है ॥
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