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तुम केवल तुम्हीं प्राण प्यारे , तृषित

तुम केवल तुम्हीं प्राण प्यारे ।

भोजन किया आपने आज , क्या किया । कैसा था ।
उत्तर बना न कुछ भीतर क्या बना ??
जो भी बना हो उत्तर श्यामसुन्दर तो उत्तर नहीँ न ।
क्या पीया आज ...  श्यामसुन्दर रस या जल ।
क्या बह रहा प्राणों में वायु या श्याम की स्पर्शित मधुर समीर  ।
प्रेमी दूसरी वस्तु जानते ही नहीँ ।
तुम हो और जो हो तुम्हारा हो । तुम पा कर कुछ टूक दे दो बस यही जीवन हो ।
दूसरी आवश्यकता ही बाधक है । मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोय । हम सब इनसे बड़े हो जाते जब यह सब गाते कहते । जबकि हमारा इनसे सम्बन्ध ही दूसरी वस्तु हेतु मात्र है । जीवन में एक झुनझुना वो दे दे तो हमारा सारा प्रेम वही हो जाता है । अतः जिसे कुछ भी चाहिये वह प्रेमी कैसे ?
हाँ अनन्त काम मयता से पुकारिये । प्रेमी होने का दिखावा ही क्यों ? जीव प्रेम मय हो नही सकता जब तक वह अपना नित्य सम्बन्ध न स्वीकार करे श्री प्रभु से । हम काम पुकारते है और हमे लगता यही प्रेम है ।
श्रीकिशोरी जु और समस्त रस भाव सहचरियाँ प्रेममयता से पुकारती है और समझती उस प्रेम को निज काम । क्या है वह निज काम श्यामसुन्दर का सुख । और क्या है हमारा प्रेम मेरासुख । वास्तव में हमारे हृदय में काम मात्र है , किसी वासना की पूर्ति भर इच्छा है इनकी हमें । प्रेम होता तो हम अवश्य स्वयं को कामी स्वीकार करते ही । कामी है हम अतः हम दीखते दिखाते अपने को प्रेमी ।
अपनी समस्त कामना श्यामसुन्दर हो जाये तो द्वितीय आवश्यकता ही न हो । प्राप्त समस्त स्थितियाँ ,प्राप्तियां हमे बौराये नहीँ जी ।
हमने देखा मंदिर में प्रभात सब आरती का जल का छींटा खाने को खड़े हो गए आगे ही आगे ।जैसे ही छींटा लगा सब हट गए फिर एक पल का दर्शन करने सामने न रह सके ।
ऐसा क्या था उस जल में कि जो उनके सामने से हटा गया ... कामना । गलती से हम कभी भूलते ही नहीँ वो ईश्वर है । जब तक याद है हम लेते रहेंगे ।
हृदय पर हाथ विचार कीजिये कितनी बार जीवन में आरती लेते हुये हमने प्रभु के आर्त (कष्ट) को अपने पर लिया । अब हम सोचने लगे ।सोचना क्या जी ,  अरे हमने हज़ारो आरतियां ली अपने कष्ट मिटाने को । उनके आर्त क्षमनार्थ नही ।वैसे ही आरती का छींटा लिया अपने कल्याण के लिये ।अभी तक तो इस सम्बन्ध में हमें अपने कल्याण की अधिक चिंता । हमें लगता है हमें श्रीगोविन्द से प्रेम हो गया है ।अरे जिसे प्रेम होता है न । वह उसे अपने छिपा लेता है । अपने को भी नहीँ कहता कि यह भाने लगे है । वो सबसे दूर खड़ा सबसे करीब इनके । नेंनो से इन्हें भरता रहता है अपने भीतर।
5 मिनट दर्शन बाद हम निहार नहीँ पाते।
मैं अपनी कहुँ अपने नेत्रो में युगल भरने से अधिक मुझे मोबाईल चार्ज की चिंता अधिक , काहे का प्रेम ।
अरे काम से भी कोई जाये न इन तक तो सच में यह समा जाये भीतर प्रेम बनकर ऐसे है यह । हम केवल इन्हें चाहते ही नही । दूसरा कुछ चाहते , हां दिखाते ऐसे कि बस आप सर्वस्व । जो यह कह दे मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोय ... तब यह क्या करते है । आपके जीवन से जगत का हरण कर लेते है और अपने को ही दे देते है । तब सहज ही सब कुछ यही अनुभूत होते है । दूसरा कुछ रहता ही नही , अतः जहर-जहर होता ही नहीँ क्योंकि उसकी सत्ता ही नहीँ भीतर । केवल वही , दूसरा कुछ नहीँ ।
जगत लेकर स्वयं को देते है । इसे ही हम कष्ट समझते है , पीड़ा समझते है । अब हम कहे कि ना ऐसा नही , तो हम कहे साफ़-साफ़ , प्रभु जी गाड़ी घोडा तो क्या ? चलती कार की हवा भी निकाल दे और स्टेपनी भी न हो न तो पंचर वाला हमारी खोज हो जाता है।  सब क्या देंगे हम , पंचर मात्र से सदमा लग जाता हमें ।
जब तक विपरीत परिस्थिति इनकी अनुकम्पा न लगे प्रेम हुआ ही कहाँ ?? हम तो अनुकूलता के प्यासे है । बिहारी जु के भीड़ होती , धक्के सहन नही होते तो हमने बिहारी जु के जाना छोड़ दिया ।
प्रेम में न भूख है , न प्यास । केवल आग है भीतर और फूल ही फूल खिल रहे है बाहर और मन , मन भँवरा हो गया है प्रति पुष्प नेत्रो से रस ले प्यारीप्यारे को मधुवर्षा से रिझा रहा है ।
प्रेमी प्रियतम से प्रियतम नही चाहता । केवल हिय उनके प्रति प्रतिपल प्रेम बना रहे यही ।
हम अपने परिवार , सदस्य , सन्तान को भूलते नहीँ क्यों ? क्योंकि अपनत्व । श्यामसुन्दर को भी कभी हिय एक भूले तो हम उतने पीड़ित क्यों नही होते जैसे एक माँ अपनी संतान को भूलने पर हो । एक पत्नी अपने पति के सँग को भूल वश छोड़ परगमन में धर्म पतन से पीड़ित होती हो । प्रियतम अर्थात सबसे प्यारे । अभी सबसे प्यारा कुछ और ही है ... अधिकतर देह , क्योंकि वास्तविक आत्म स्वरूप भी हम आत्मा या भावना को न मान देह को ही मानते । देह की स्थिति से हमारा जीवन गतिमान । प्रियतम अर्थात सर्व रूप वही प्रिय । वही प्रिय । वही प्रिय । वही आधार । वही रस । वही जीवन । वही प्राण । प्राणाधार और जीवनाधार एक हो बस । अर्थात हमारा मूल उद्गम । और मूल निकास । उनसे उन तक । तब कही प्रेमाणु का हिय में सुगन्धित विस्फोट हो ... तृषित ।।।

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