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विशेषता , मृदुला जु

आकर्षण का प्रथम कारण विशेषता ही होती है ॥ हमारे युगल संपूर्ण विशेषताओं का सार तथा मूल उद्गम हैं ॥ सो रस के प्रति रूप के प्रति गुणों के प्रति हृदय की पिपासा ही उन तक ले आती जीव को क्योंकि जीव का स्वरूप ही प्यास है आनन्द की ॥ उस रूप रस के गहन होती पिपासा को ही जीव हृदय में अनुभव करने लगता उत्तरोत्तर ॥ जितनी प्यास उतना ही वे प्राप्त भी होते ॥ जीव अपनी इस प्यास को ही प्रेम जानता है ॥ जितनी गहन प्यास उतना ही अधिक प्रेम मानता स्वयं में ॥ वास्तव में यह प्यास ही विशुद्ध प्रेम की भूमिका है ॥ विशुद्ध प्रेम जीव का स्व भाव या स्व वृत्ति है ही नहीं ॥प्यास ही स्वरूप है उसका ॥ और इस स्व भाव के कारण वह केवल ले ही सकता है रस सिंधु से ॥ परंतु वे परम प्रेम सार विग्रह इसे ही प्रेम स्वीकार कर लेते हैं जीव का ॥ जीव उनके रूप , रस का रसास्वादन कर सुखी होता रहे यह उन्हें सुख देता है क्योंकि प्रेम का स्वरूप ही तत्सुख है ॥ इसी कारण भक्ति को सर्वोपरि माना गया है क्योंकि भक्त भगवान् के आनन्द का उपभोग कर पाता है और अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें सुख दे पाता है ॥ परंतु जीव की सीमा है आनन्द उपभोग की सो वह प्यारे को सीमारहित सुख देने में अक्षम है ॥ श्री युगल की अहेतु की कृपा से यदि जीव के निर्मल हृदय में भगवद् तत्व अर्थात् प्रेम का अंकुर फूटता है तो वह अपनी सहज जीव वृत्ति से मुक्त होकर भगवदीय वृत्ति अर्थात् प्रेम का अनुभव कर पाता है ॥ इस स्थिती में जो प्रेम वृत्ति है वह जीव की निजता नहीं वरन उनकी प्रेम वृत्ति अर्थात् श्री राधिका का ही सूक्ष्मतम् कण है ॥ केवल भूमि है जीव हृदय वरन अंकुर तथा फलीभूत होने वाला पौधा तथा उस पर खिलने वाले पुष्प समस्त सत्ता केवल युगल का ही निजत्व है ॥ अर्थात् सार रूप कह सकते कि उनकी ही वस्तु से उनका ही अर्चन ॥ जीव का स्वभाव प्रेम है ही नहीं और युगल का स्वभाव प्रेम के अतरिक्त कुछ नहीं ॥वे ही निजत्व प्रदान कर शुद्ध प्रेम को धारण करने वाला पात्र बना लेते उसे ॥ वह तो केवल पात्र है जिसमें युगल अपना प्रेम रस कण आरोपित करते हैं ॥ यही भगवदीय प्रेम वृत्ति उसे जीवत्व से मुक्त कर प्रेम स्वरूप कर श्रीयुगल के नित्य प्रेम रस राज्य में प्रवेश तथा नित्य वास प्रदान करती है ॥ सजातीय ही सजातीय में मिल सकता है ॥ सो वे कृपानिधान प्रेमनिधान जीवत्व को मिटा निज प्रेम स्वरूप प्रदान कर सदा को स्व कर लेते ॥ जब  तक जीव निज स्व भाव में अवस्थित है रस राज्य में पहुँचेगा कैसे ॥दुग्ध में दुग्ध ही मिल सकता जल नहीं ॥ यद्यपि संसार में जल का दुग्ध में मिलना माना जाता परंतु वह केवल मिश्रण भर है एकत्व नहीं ॥ दोनों के अपने अपने पृथक गुण विद्यमान रहते ही हैं ॥ जब तक गुण एक न हो जावें तब तक मिलना मिलना है ही नहीं ॥

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युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

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