श्रीकृष्ण प्राण संजीवनी श्रीराधा
समस्त चराचर जगत् समस्त अस्तित्व के प्राण हैं श्री कृष्ण पर उनके प्राण कहाँ बसते हैं ॥ प्यारे श्यामसुन्दर के प्राण तो नित्य साकार हैं श्री प्रिया रूप ॥ श्री प्रिया न केवल प्राण हैं उनकी वरन वे तो संजीवनी हैं प्रियतम के प्राणों की , महाऔषधि हैं उन प्रेमरत्न श्यामसुन्दर की ॥ संजीवनी...... क्या करे है संजीवनी ॥ मरणासन्न प्राणों को जीवन दान है संजीवनी ॥ श्यामसुन्दर के विरहानल में दग्ध होते प्राणों को बचाने का कोई उपाय है तो केवल श्री प्रिया ॥ प्रियतम के प्राण तो सप्राण ही प्रिया जू के प्रेममय रसमय सानिध्य से होवें हैं ॥ हृदय का स्पंदन , प्राणों का प्रवाह , जीवन की चेतना सब कुछ प्यारी जू के संग से ही तो है श्याम में ॥ वे कहते हैं "जानती है क्यों हूँ मैं क्योंकि तू है । तेरी अंग सुगंध जब श्वासों संग उर में प्रविष्ट होती है न प्यारी तो डूबते प्राणों को अवलंबन मिल जाता है ॥ तेरे रूप दर्शन से ही तो हृदय स्पंदित होता मेरा ॥ तेरा सानिध्य तेरा परम प्रेममय शीतल स्पर्श ही तो जीवन को जीवन देता मेरे ॥ श्यामा तू मेरी प्राण संजीवनी है ॥बस तू है तो मैं हूँ ॥ हे प्यारी जिस प्रकार बिंब की सत्ता से ही प्रतिबिंब का अस्तित्व है वैसे ही तेरे होने से मैं हूँ ॥" श्री प्रिया न केवल संजीवनी है वरन पोषण भी हैं प्रियतम के विरहित प्राणों का ॥ प्रियतम की क्षुधा पिपासा रस समस्त का एकमात्र हेतु और निराकरण मात्र श्री प्रिया का निर्मल प्रेम रस भोग ही तो है ॥उनकी दृष्टि से देखें तो वे (प्रियतम) हैं ही इसलिए कि प्यारी के प्रेम रस का पान करते रहें नित्य निरंतर अनवरत अखंड ॥ प्यारे के विरहजनित समस्त ताप को क्षण भर मांहि निज दर्शनों से हर लेवें हैं ये प्रेम वारिधि ॥ ताप हरण कर सुंदर भाव भंगिमाओं से नेत्र कटाक्षों से आलिंगन से नव प्राणों का संचार कर देतीं हैं अपने जीवन धन में ॥ दोनों के इस प्रेम विलास का मूल इसका अनन्त विस्तार और सकल सार तत्सुख ही तो है ॥ और बडों ही विचित्र है यह प्रेम रस विलास युगल का ॥ संसार में जल पीने से तृषा शांत होती है पर यह प्रेम तृषा इतनी अद्भुत है कि जितना पान किया जावे और अनन्त गुना वर्धित हो उठती है ॥नित्य रस विहार में निमग्न रहने पर भी दोनों के उर की तृषा कभी भी तृप्ति जानती ही नहीं क्यों ....क्योंकि ये प्रेम की तृषा है अर्थात् तत्सुख की गहन प्यास , जो कभी पूरित होती ही नहीं ॥ परस्पर के सुख संवर्धन की ये पिपासा नित्य नवीन नित्य बढती ही रहती है सो बुझे कैसे ॥ तत्सुख का ही साकार रूप हैं श्री प्यारी जू , वही उद्गम प्रेम का ॥ उनका जीवन मात्र ही प्रियतम के सुख हित है ॥ प्यारे के सुख हित ही तो क्षणार्ध भर का भी वियोग न देवें है उन्हें ॥सदा सन्निधि ही प्रदान करती हैं फिर भी व्याकुलित ही रहती हैं प्रियतम हित ॥गहन आलिंगन में भी हिय प्राण छटपटाते रहवें हैं लाडली के पिय सुख तृषा के कारण और संयोग में भी वियोग की अनुभूति होने लगती है उन्हें ॥ और श्यामसुन्दर तो ऐसे जैसे रस के सिंधु में मीन विचरण करे बाहर भीतर सब ओर रस ही रस परंतु फिर भी प्यारी सुख हित और और और ........॥
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