चाह
युगल प्रेम युगल प्रीति युगल सेवा ॥ हम तो चाहें बस युगल सेवा ॥क्या है वास्तव में युगल सेवा ॥ सामान्यतः श्री राधामाधव को एक स्त्री पुरुष मान उनकी सेवा को ही युगल सेवा समझा जा रहा है ॥ युगल सेवा कृष्ण प्रेम की अतयंत उच्च अवस्था है ॥ हमारे प्यारे युगल कोई नर नारी नहीं हैं वरन उनका स्वरूप क्या है संबंध क्या है परस्पर से यह बिना कृष्ण प्रेम प्राप्त हुये अर्थात श्री राधिका की कृपा बिना उजागर होता ही नहीं ॥ उससे पूर्व उनके संबंध में जो भी कल्पनायें की जातीं हैं वे केवल कल्पनायें ही मात्र होतीं हैं ॥ श्रीकृष्ण सहज आकर्षण हैं प्राणी मात्र का ॥ सो उनकी तरफ आत्मा का खिंचाव निश्चित और परम कल्याणकारी है ॥ जीव मात्र अनन्त काल से उन्हीं के अनुसंधान में पृवृत्त है चाहें इसे समझे या नहीं ॥ इन्हीं श्रीकृष्ण के प्रति जब ये खिचाव इतना प्रबल हो जाता है कि माया के समस्त संबध, चाहें वे स्वयं से होवें या अन्यों से टूट जाते हैं तब वे प्रेमस्वरूप स्व का दान करते हैं ॥ उनका स्व क्या .....॥ उनका स्व हैं श्री राधा .....श्री राधा अर्थात् कृष्णप्रेम ॥ बात बहुत सूक्ष्म है ॥ उनके स्व को पा कर ही उन्हें जाना जा सकता है ॥ उनके स्व की जब जीव में प्रतिष्ठा होती है तभी उनका प्रेम स्वरूप उजागर हो पाता है ॥ स्व से ही स्व का बोध ॥ यहाँ बोध का तात्पर्य प्रेम की अनुभूति से है ॥ प्रेम ही प्रेम का बोध पा सकता है ॥बिना प्रेम प्रेम की अनुभव कैसे भला ॥ यह प्रेम तत्व ही श्री राधा हैं ॥ इनकी कृपा बिना कैसे इनके प्रियतम को जाना जावे ॥ पर प्रश्न यह हो सकता है कि उन्हें जान करना क्या ॥ प्रेमी के लिये तो अपने प्यारे को जानना परम आवश्यक होता है क्योंकि यदि वह प्यारे को प्रेमास्पद को नहीं जानेगा अर्थात् उनकी रुचि उनका सुख उनका मन जान ही नहीं पायेगा तो प्रेम का जो लक्ष्य है प्रेमास्पद की सेवा वह कैसे होगी ॥ तो सार यह है कि स्व की कृपा से स्व को जानना है ॥ कृष्ण स्व अर्थात् श्री किशोरी ॥ सो प्रियतम के मन को जानना , सुख को जानना रुचि को जानना ही किशोरी को जानना है क्योंकि वही तो हैं कृष्ण मन रुचि और सुख ॥ जब वे अकारणकरुणावरुणालया करुणा करतीं हैं तब ही प्यारे का सुख निज मन में प्रकट होता है ॥ और तब जाकर प्रकाश होता है श्री प्रिया के स्वरूप का हृदय में ॥ अंतर्पट खुलते हैं कि अरे ये किशोरी तो साक्षात् साकार सुख मूर्ति है प्यारे की ॥ प्रियतम के सुख की लालसा और उनके सुख का स्वरूप दोनों एकसाथ हृदय में प्रकाशित होते हैं ॥ श्री प्रिया के स्वरूप के प्रकाशित होते ही प्रियतम के सुख की गहन लालसा स्वतः प्रकट होती है ॥ क्योंकि दोनों एक ही हैं अतः स्वरूप प्रकट होते ही लालसा स्वयं उदित होती है ॥ वहाँ कोई प्रयास नहीं करना पडता ॥ इस स्थिती में बोध होता है कि वे कोई रमणी नहीं हैं वरन् श्रीकृष्ण का आह्लाद हैं साक्षात् ॥ उनके इस कृष्ण सुख स्वरूप के उजागर होते ही स्वतः ही उनके प्रति परम प्रेम परम समर्पण परम ममत्व का हृदय में विकास होने लगता है ॥ श्री प्रिया के प्रति गाढ़ प्रेम की क्रमशः विकसित होती स्थितियाँ हीं मंजरी , किंकरी सहचरी तथा सखी भाव हैं ॥ प्रियतम सुख से प्रेम का अर्थ है श्री राधा में सहज प्रेम ॥ प्रश्न यह भी हो सकता है कि इन सब का स्वरूप स्त्री ही क्यों या निकुंज में केवल नारी रूपा भावों को ही प्रवेश क्यों ॥ तो उत्तर यह है कि दिव्य प्रेम की ये सारी अवस्थाएँ माधुर्य भाव के बाद की अवस्थायें हैं ॥ माधुर्य भाव अर्थात् श्रीकृष्ण में कान्त भाव ॥ जब श्रीकृष्ण में कान्त भाव प्राप्त हो चुका तब स्वयं में पुरुष भाव बचा ही कहाँ ॥ स्वयं में पुरुषत्व का बोध रहा तो माधुर्य कहाँ ॥ सार यह कि माधुर्य से आगे के समस्त भावों में मात्र श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष या कहिये पुरुषोत्तम हैं ॥ तो कहना यह था कि श्री राधिका में प्रेम , श्री राधिका की सेवा प्रियतम के सुख से अपार प्रेम प्रियतम के सुख की ही सेवा है ॥ इस अवस्था में प्रियतम का सुख प्रियतम से भी अधिक प्रिय हो जाता है ॥तभी मंजरीगण केवल श्री प्रिया की सेवा की ही कामना करतीं हैं ॥ प्रियतम का सुख अपना जीवन प्राण हो उठता है ॥ लगता है मानों अपने ही प्राणों की सजीव प्रतिमा समक्ष विराजमान हो ॥ प्रियतम का सुख उनसे से भी अधिक प्रिय तो कभी कभी प्रियतम की भी उपेक्षा हो जाती है ॥ वस्तुतः श्री राधा में अपार प्रीति श्यामसुन्दर में ही प्रीति है । किशोरी की सेवा प्यारे की ही सेवा है ॥ श्यामसुन्दर को अपनी सेवा से उतना सुख प्राप्त नहीं होता जितना श्री किशोरी की सेवा से ॥ जो भी मंजरियाँ किंकरियाँ श्री प्रिया की सेवा में रहतीं हैं प्रियतम के लिये वे स्वतः ही प्राणवत प्रिय होतीं हैं ॥ और जब कोई किंकरी उनकी उपेक्षा कर प्यारी लाड लडाती है तो प्रियतम के रोम रोम में रस की बाढ सी आ जाती है ॥ वे तो स्वयं को ऐसी किशोरी दासियों का दास मानते हैं ॥ किशोरी का दासत्व परम प्रेष्ठ परम श्रेष्ठ परम अभीष्ट है ॥ पर इसका स्वरूप वैसा नहीं जैसा संसार में समझा जाता है ॥ बिना प्रिय सुख से प्रेम , श्री राधा सेवा अलभ्य है ॥ और प्रिय सुख से प्रेम स्वयं उनकी (किशोरी )की कृपा के अलभ्य है ॥ ये दोनों ही परस्पर आश्रित हैं ॥ सो हम उन्हीं प्रेम सार रूपिणी पिय सुख सार विग्रह सखियों मंजरियों किंकरियों की प्राणजीवनी निकुंजेश्वरी श्री राधिका के श्री चरणों मे कृपा के लिये प्रार्थना करें ॥
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