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वेणु रव , मृदुला

वेणु रव

श्यामसुन्दर का वेणु रव आहा ...क्या है ये ॥श्यामसुन्दर की ही भांति निज निज भावानुसार अनभूत होता ॥ हृदय में उतरता कृष्ण हृदयराग ये ॥ ना कर्णों से पीने की वस्तु कहाँ ये , यह तो हृदय का रस है ॥ ना जाने कैसा कैसा सा लगता प्रियतम सा ही ॥ कृष्ण के लिये प्रिया प्रिया के लिये श्यामसुन्दर और सखिन के लिये युगल तत्व ॥ किस भाव से कहुँ ....॥ क्यों न श्यामा के लिये श्याम सुने हम ॥
कृष्ण हृदय का राग है ये वेणु रव ॥प्रियतम हृदय की समस्त अनकही गुप्त रसनिधि है ॥ द्रवित श्यामसुन्दर ही तो बह रहे इसमें ॥ प्रियतम का झरता हुआ रोम रोम परम सुशीतल परम मधुरतम स्पर्श , ऐसा स्पर्श जो प्राणों के भीतर उतर शीतल करता ॥ निज प्राणों को एक कर दीना है उन्होंने इस वेणु से तो बह क्या रहा फिर , प्रियतम ही न ॥ प्रियतम तो श्री राधिका को ही प्रवाहित कर रहे पर प्यारी को तो मात्र प्रियतम ही अनुभव हो रहे ॥ दोनों की परस्पर वार्ता हो रही प्रिया हृदय में ॥ संसार को लागे कृष्ण रस है वेणु रव पर प्यारी को प्रियतम की अनन्त तृषा ही अनुभूत होवे न ॥ पुकार रहे उन्हें पर पुकार बन स्वयं ही तो समाये जा रहे उनमें ॥ हृदय प्राण रोम रोम सर्वत्र ही भर गये हैं स्वयं ॥ प्यारी को समस्त अस्तित्व ज्यों डूब रह्यो या रव में ॥ डूबती जा रहीं वे श्यामसुन्दर में जो भीतर उतर उन्हें आत्मसात् किये जा रहे हैं ॥ बाहर दिख रहीं वे पर भीतर का रोम रोम द्रवित प्रियतम में डूब प्रियतम होता जा रहा है ॥ बाहर श्यामा भीतर श्याम ॥दिव्य मिलन यह और यही युगल मिलित स्थिती सखिन के हृदयों में वेणु रव रूप हो समा रही ॥ श्यामाश्याम श्यामाश्याम श्यामाश्याम आहा.....॥ जैसे दोऊँ एक होकर नृत्य कर रहे हों जैसे दै्वत अदै्वत साकार हो उठे वेणु रव रूप ॥ मिलित प्रिया प्रियतम आह ...॥यह वेणु रव ही तो परम अभिष्ट सखियों का क्यों क्योंकि ये उनकी हृदय पिपासा , यही तो वांछित उन्हें नित्य ॥ सखी हृदय में उतरा हुआ युगल का परम मिलित वपुः है ये वेणु रव ॥ उनके प्राणों की प्यास है यह ॥ प्रत्येक सखि के हृदय में तद्भावनुरूप युगल का एकत्व रूप अनुभव कराने वाला प्राण संजीवन है वेणु रव ॥जैसे दोऊ संग थिरक रहे जिनके अंग प्रत्यंग समान लय ताल पर संगीत बिखेर रहे ॥ क्या क्या कहें क्या वाणी में समावेगा हृदय ....॥
  श्याम आज प्रिया हृदय में उतर गये हैं जहाँ सदा पहुँचना चाहते वे इस रूप में पँहुच निज मन की सब कह रहे आज प्यारी सों ॥कृष्ण राग क्या श्यामा कृष्ण तृषा क्या श्यामा कृष्ण पुकार क्या श्यामा ॥ वाणी का विषय ही नहीं जो ॥ बात हो रही है भीतर परम एकांत में दोनों की , निभृत निकुंज में कहाँ राधिका हृदय में ॥ हृदय से हृदय की बात ॥प्राणों से प्राणों की बात ॥
और कछु भाव बन रह्यो सो लिख रही हूँ ॥
प्रियतम चाह्वे नित्य प्रिया हृदय में उतर अपने लिये प्रेम की गहराई जानना ॥ परम प्रेम के अतल तल को खोजना पर उस अनन्त महाभाव वारिधि के हृदय में कैसे पहुँचे सो आज वेणु रव हो समा गये हैं प्रिया हृदय में ॥सोचे थे कि जाय समाय आज जान लूंगो कि कितनो प्रेम भरो या में पर यह क्या यो तो डूबन लागे ॥ डूब ही गये इस अतल प्रेम सिंधु में ॥ ऐसे डूबे कि निकसो ही नाय जा रयो ॥ सुध बुध खोकर बिसर गये हैं या में ॥ प्रिया हृदय में रोम रोम मों घुलकर एक होते जा रहे और यह क्या अब तो अस्तित्व ही विलीन सो होने लगो महाभावअतलतल मों सो प्रिया ही होने लगे हैं । यहाँ बाहर प्रियतम दिख रहे हैं वेणु अधरों पर धरे पर केवल बाहर से , भीतर तो प्रिया हो चुके वे पूर्ण ॥ यहाँ बाहर प्रियतम भीतर प्रिया , वहाँ बाहर प्रिया भीतर प्रियतम और सखी हृदय में युगल परम मिलित वपुः आहा.....॥तो कौन प्रवाहित कर रहा वेणु रव अब ,  प्रिया या प्रियतम या दोऊँ एक रूप हो फूंक रहे या में प्राण ....॥
तोहे खोजन चला था प्यारी
अब निज को ही खो दिया
पाना था पार तेरे प्रेम का
अपना पता ही बिसर गया
तुझमें उतरा तो मैं न रहा
रही बस एक तू ही मुझमें
तू मुझमें है अब मैं तुझमें हूँ
है कौन कहाँ अब तू ही बता ॥
तृषित

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