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ओ री सखी मोहे कछु करि दे , मृदुला जु

ओ री सखि मोहे कुछ कर दे ।वाणी को महक कर दे । दृष्टि को रस कर दे । हृदय को प्रियतम कर दे ॥ कि कैसे छूऊं उन्हें ॥ कैसे कोमल हैं वे जी करता मात्र श्वासों से ही स्पर्श करुँ उनका । पर नयन तो देखें बिना न मानें री तो नयनों को रस कर दे कि जब ये नयन गिरें उन पर तो उन्हें रस स्पर्श ही मिले ॥ जब कहुँ श्याम तो केवल महक ही स्पर्श करे उनका तो वाणी को महक कर दे ॥ स्पर्श को मधु कर दे री कि मधुरता ही प्राप्त हो उन्हें ॥ हृदय को प्रियतम कर दे कि हृदय में समा लूँ उन्हें पर वे इतने कोमल तो वे ही तो उन्हें पावें वे ही उन्हें समावें ॥ मोहे कृष्ण कर दे न री मोहे कृष्ण कर दे

ओ री सखि मोहे कछु करि दे
वचनावली महक ते भरि दे
दृगन कोर अति रसमय करि दे
किस विध भरूं पिय को हिय में
हिय को ही तू पिय करि दे
जी चाहें श्वासन ते छू लूं
श्वासों को छुअन में भरि दे
मधुकर से पिय हैं सखि मोरे
रोम रोम मकरंद सो भरि दे
अति ही कोमल प्राणपति वे
कोमलताई मो मन में भरि दे
निज को ही वे पावें निज में
हे प्यारी मोहे प्रियतम करि दे ॥

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