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युगल एकत्व , मृदुला जु

युगल एकत्व

कितने कोमल हो तुम प्राण निधि हृदय निधी जीवन निधी .....॥ क्या कुछ वस्तु है ऐसी सृष्टि में मोहन जो तुम्हारे योग्य हो ॥ कुछ भी ऐसा जो स्पर्श कर सके तुम्हें और उस स्पर्श से सुख हो तुम्हें ! हाँ है न प्रियतम मेरे ....केवल ऐक ही तो है जो तुम्हें सुख लाभ करातीं हैं तुम्हारी चिर संगिनी नित्य संगिनी ॥ तुम्हारी प्राण संजीवनी तुम्हारी अपनी राधा ॥ कौन हैं राधा.... ओह ये तो प्रत्येक भावमय हृदय में खिलने वाली तुम्हारी प्रीति है प्यारे ॥ यही प्रीती तो तुम्हारा सुख है प्यारे ॥ तो क्यों न इसी प्रीति से श्रृंगार करुँ तुम्हारा ॥ हृदय भाव सा सुकोमल कुछ है ही नहीं अन्य क्यों भला ...अरे यही तो हैं न तुम्हारी प्रिया रस सिंधु की कोमल रस लहरियाँ ॥ तो आओ प्रियतम हृदय रस से सजाऊँ तोहे ॥हृदय के रस को ही कर में लेकर प्यारे तुम्हारे रसित नयनों में अंजन सा आंज दूँ ॥ हृदय रस को ही पुष्प माल बना तव उर पहना दूँ ॥ हृदय रस को ही सर्वांग पुष्प आभूषण कर धारण कराऊँ ॥ इन तिरछे चरण पल्लवों में पहना दूँ यही आत्म स्वरूप ॥ राधा अर्थात् तुम्हारी प्रीती ही तो लिपटी है पीताम्बर बन तुमसे ॥ वही तो उत्तरीय हो भूषित कर रही तव हृदय पटल को ॥ पर क्या बस यहीं है वो अरे नहीं नहीं देखो तो तनिक वो तो तुम्हारे रोम रोम से छलक रही झलक रही ॥ कहाँ नहीं है वह ॥ नयनों में प्रेम बन बसी हुयी वह प्रेम रस सी बरस रही है ॥ अधरों को रससिक्त किये हुये मुस्कुरा रही है ॥ अरे तुम्हारे तो रोम रोम में वही परिलक्षित हो रही है ॥ ना प्यारे तुम्हारा तो रोम रोम बना ही वा से है ॥ प्रियतम तुम्हारी तो दृष्टि ही राधा है प्यारे अरे दृष्टि ही नहीं तुम्हारी मुस्कान भी वही अरे तनिक देखो तो तुम्हारी अंग सुंगंधि भी तो वही ....न न तुम्हारा स्वर भी कहाँ तुम हो प्यारे ...ओह ये महारसमय पावन स्पर्श कौन है प्रियतम अरे ये भी तो वही है ॥ तुम्हारा अद्भुत सौंदर्य बन वही तो त्रिभुवन को मोहित कर रही है प्यारे ॥ वही तो मोहिनी है तुम्हारी श्यामसुन्दर तुम्हारी श्यामा ॥ कान्ह तुम कहाँ हो प्रियतम मुझे तो केवल वही दिख रही है ॥ क्या ये तुम हो या वह है प्यारे .....॥
तृषित

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युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात