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तव प्रीत अपार रे मोहना , मृदुला जु

तव प्रीति अपार रे मोहन

क्यों कर रहे इतना प्रेम तुम मुझसे श्यामसुन्दर क्यों । अनन्त अगाध प्रेम बरसता नित्य तुम्हारा सदा अनवरत अखंड एकरस होकर ॥ जो अनुभूत करुँ तो समेटना असंभव । जो अणु स्पर्श कर रहे मेरा सकल अस्तित्व वह सब तुम्हारा प्रेम है प्रियतम केवल प्रेम ॥ प्रेम कोई अनुभव नहीं जो किन्हीं सीमाओं में बांध लूँ मैं ॥ प्रेम तो रस है ॥ क्यों खोजती वे अनुकूलतायें जिन्हें प्रेम का नाम दूँ मैं ॥ ना प्रेम जीवन में प्राप्त होने वाली अनुकूलतायें तो नहीं है ॥ प्रेम वह रस है जो नित्य प्रवाहमान हो रहा मेरे बाहर भीतर ॥ क्यों सोचूँ कि जो जो अनुकूलतायें मिल रहीं केवल वही तुम्हारा प्रेम है शेष अप्रेम ॥ अप्रेम कभी होता ही नहीं तुममें । प्रेम तो प्रकाश है सूर्य का जल है वर्षा का जो समान बरस रहा बस मेरी अपात्रता ही मुझमें प्रतिकूलता की प्रतीति करा रही ॥ तुम्हारे अगाध अनन्त प्रेम सिंधु में ही बह रही हूँ अनादि काल से पर फिर भी उसका कोई अणु स्पर्श न हुआ सो प्रेम अनुभूत न कर सकी तुम्हारा ॥ तुम्हारे प्रेम का सिंधु ही संपूर्ण चराचर को आप्लावित करे हुये है प्रियतम पर फिर भी प्रेम उससे अनभिज्ञ हूँ मैं ॥ किसी अणु का ही स्पर्श जो प्राप्त हो जाता तो उसी अणु बिंदु से उस प्रेम वारिधि का पूजन अर्चन कर पाती ॥ सागर के जल अणु से सागर का अभिषेक ॥ चारों ओर लहरा रहा ये तुम्हारा प्रेम सिंधु डूबती कभी लहराती इसमे मैं ॥ कहीं कोई ओर छोर ही नहीं इसका ॥ तुम्हारे प्रेम की लहरें ही जहाँ चाहें ले जातीं मुझे । कभी इस ओर कभी उस ओर ॥ तुम्हारी मन मोहिनी मुस्कान ही तो प्रेम सिंधु की लहरें हैं प्रियतम ॥ ये अनन्त प्रेम तुम्हारा कभी कभी अणुमात्र जो स्पर्श होने लगता तो लगता मानों इस अनन्त में डूब जाउंगी या ये अस्तित्व मेरा सह ही न सकेगा तुम्हारा अपार प्रेम मोहन ॥ खो ही जायेगा प्रेम सिंधु में ये जीवन बिंदु मेरा ॥ तृषित ।।

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