Skip to main content

प्रेम-पन्थ सखि ! सबसों न्यारो। मृदुला जु

प्रेम-पन्थ सखि ! सबसों न्यारो।
प्रेम-काम दोउ राग रूप हैं, तदपि भेद इन को अति भारो॥
प्रेम प्रकास पुन्य अति उज्ज्वल, काम अन्ध अघ अरु अतिकारो।
प्रेम दिव्य मुक्तिहुँ सों दुरलभ, काम आसुरी बाँधनहारो॥
प्रेम सदा प्रीतम-सुख-साधन, निज सुखको तहँ कछु न सहारो।
काम देह-सुख में नित बाँधत, भोग-रोग ही तहँ अति खारो॥
परम त्यागमय होत प्रेम सखि! प्रिय के हित तपहूँ तहँ प्यारो।
काम निपट स्वारथ ही सजनी! प्रिय-सुख तहाँ न कोउ निरधारो॥
सुद्ध प्रेम हरिहुँ कों बाँधत, प्रेमी सदा स्यामकों प्यारो।
काम काय-बन्धनमें बाँधत, है वह नित्य नरक को द्वारो॥
कहँ लगि कहहिं दोष-गुन इनके, एक अमृत विष अपर विचारो।
एक स्वयं हरिरूप अनामय दूजो काल-रूप अति कारो॥
जय जय श्री राधे !

सखि री प्रेम पंथ तो सबसे विलक्षण है ॥प्रेम और काम दोनों ही एक जैसे दीखें हैं बाहर से परंतु दोनों में परम अंतर है री ॥ प्रेम अति गहन तत्व है री ॥ यद्यपि दीखन में एक जैसे पर सर्वथा विपरीत हैं दोनों ॥ प्रेम का आधार त्याग जबकी काम का स्वार्थ है ॥ प्रेमी का त्याग भी बडा अद्भुत होता है री ॥ सर्व त्याग करके भी प्राण व्याकुल हुये रहते हैं ॥ नित्य ही प्रियतम चरणों में सर्वस्व अर्पित करके भी यही अनुभव होता कि कुछ दे ही न पाये ॥ प्रति क्षण हिय अकुलावे है प्रियतम के सुखार्थ । क्या करें कैसे करें कि वा को सुख होवे ॥ और जितना ही वा को सुख होवे उतनो ही उनके सुख की प्यास बढती जावे ॥प्रेम कभी पूर्ण ना होवे री दिन रैन या की बेली फैलती ही जावे ॥ नित नव मंजरी नित नव प्रसून खिलें हैं या बेली पर ॥ कैसी उत्कंठा कैसी गहन तृष्णा पिय के सुख की नित ही प्राणों को हृदय को रोम रोम को तपावे है री । या तो वो ही जाने सोई प्रेम अमृत चाखे री ॥ या में विरह भी सतावे है री पर वो विरह काम की तरह निज सुख लालसा को नाहीं री वो तो है प्रियतम के सुख को विरहित हिय ॥ प्रेमी तो प्यारे के सुख के सिवा दूजा कछु जानत ही नाहीं ॥ प्यारे के सुख हित ही सकल जीवन हो जावे री ॥ प्रेमी भी प्यारे को संग चाह्वे री कामी भी पर बडों भेद दोऊँ में ॥ प्रेम तो प्यारे को सुख हो रह्यो याही ते सामिप्य चाहवे ॥ जो प्रियतम को सुख नाहीं तो सानिध्य भी विष समान वाके लिये तो ॥ प्रेम एक प्यास है री जो कभी पूरित होती ही नाय । जितनों पियो उतनो ही और और बाढ़े री ॥ और प्रेम करुँ प्यारे ते और प्रेम करुँ बस प्रति पल गहराती जावे ॥ प्रेम की एक और विशेषता है री ॥ कि प्रेम में प्रेम अनुभव ही नाय होता स्वयं में ॥ ऐसा मानना  नहीं पडता कि मो  में प्रेम नाहीं वरन ये स्वभावतः अनुभव में आता ही है कि प्रेम की तो गंध भी ना मो में ॥ या को भी कारण है कि प्यारे ऐसो लागे कि वो जिस प्रेम को अधिकारी वो तो दे ही नाय पा रही तो स्वयं ही स्वयं में प्रेम का नित्य अभाव ही दीखें है री ॥ बार बार हिय अकुलावे कि तुम जिसके अधिकारी वो तो है ही नाय मो पर तो ......॥ कहाँ से पाऊँ ऐसो प्रेम जो तोहे तृप्त करुँ ॥ प्रेम की मूल प्रेम तत्व को सार विग्रह श्रीराधिका की तो यह नित्य अनुभूति है कि कबहूँ प्रेम की गंध भी नाय पायी मैंने ॥ प्रेम की गंध...... क्या होवे है प्रेम की गंध ॥ लागे कि ज्यों किसी पात्र में दुग्ध कर दियो जावे और कुछ समय बाद वा को खाली कर धो दिया जावे जल से तब भी उसमें दुग्ध की गंध शेष रह जावे है ॥ श्री किशोरी तो स्वयं में उस गंध बराबर भी प्रेम का अनुभव ही नाय करतीं हैं ॥ यही प्रेम का स्वभाव है ॥और भी बहुत सों स्वरूप प्रेम को ॥ प्रतिक्षण वर्धमान ....॥क्यों प्रतिक्षण बाढ़ें है यो ...क्योंकि जितनों बढतो उतनो ही रिक्त अनुभव करातो सो कभी पूरो ही नाय होतो ॥ क्या कभी ऐसे जल की कल्पना भी की जा सकती क्या कि जिसे जितना पियो उतनी प्यास बाढ़ें ....प्रेम वही रस है तृप्ति तो बहुत दूर की बात है री या तो नित्य तृषा को गहन से गहनतम करतो जावे ॥ वास्तव में प्रेम ऐसो रस सिंधु है कि जामें जितनों डूबो उतनों ही उच्चता पर पहुँचाता ये ॥ जो जितना डूब गया श्याम रंग में सो उतना ही उज्जवल हो गया ॥ श्याम रंग क्यों क्योंकि श्याम ही तो प्रेम ना री तो श्याम रंग अर्थात् प्रेम रंग ॥
ज्यों ज्यों डूबत स्याम रंग त्यों त्यों उज्जवल होय ॥

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात