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कृष्ण लालसा , मृदुला जु

कृष्ण लालसा

क्या जीव को प्रेम नित्य प्राप्त है ? ना .. जीव को जो प्राप्त वह है काम । पर मनुष्य काम को ही प्रेम समझता है ।क्यों ..क्योंकि अभी प्रेम चखा ही नहीं कभी अनुभूत हुआ नहीं तो उसके अभाव में अनभिज्ञता में अबोधतावश काम ही प्रेम प्रतीत हो रहा ॥ बहुत बहुत बहुत चाहना किसी को इसे ही प्रेम कहा जा रहा है ॥ फिर चाहे वह दूसरे मनुष्य को या श्री भगवान को ॥  सूक्ष्मता से स्वयं चिंतन करिये ॥ काम का स्वरूप क्या .... निज सुख तो श्री भगवान के दर्शन मिलन से अभी स्वयं को ही तो सुख चाहिये न तो वहाँ प्रेम कैसै हुआ ॥ वास्तव में प्रेम दिव्य तत्व है जो भगवदीय अनुग्रह मात्र से ही अंकुरित होता है हृदय में , मन में नहीं क्योंकि मन मायिक है यहाँ दिव्य वस्तु को धारण करने की क्षमता ही नहीं जब तक की मन भी दिव्य ना हो जावे ॥ हम सभी दिव्य प्रेम राज्य के वासी हो जाना चाहते हैं ॥ स्वयं को मान भी स्वयं ही लेते हैं ॥ पर अभी वास्तविक काम भी जीवन में नहीं उतार पाये ॥ वास्तविक काम अब यह क्या है !  जी काम अर्थात् कामना और यह  तब सार्थक होती है जब वह श्री भगवान के प्रति हो जावे । अनन्य भाव से केवल वही चाहिये । संबंध का स्वरूप चाहे जो हो ॥ वह वात्सल्य सखत्व माधुर्य कुछ भी हो सकता है ॥काम भी भगवद् मिलन का हेतु होता है पर तभी जब वह अनन्य हो ॥ तात्पर्य यह कि जो संबंध उनसे जोड लिया उनकी प्राप्ति हेतु वह अनन्य हो जावे ॥ और यदि यह संबंध माधुर्य का हो जावे तो अति शीघ्र फलित होने की संभावना बढ जाती है ॥क्योंकि जिस प्रकार संसार में माधुर्य संबंध रक्त संबंध न होकर भी सर्वप्रमुख होता है वैसे ही यह भगवदोद्मुखी होने पर सर्वप्रधान और गहन होता है और इसी कारण इसके उत्पन्न होने पर विरहानल महाप्रचंड होती है ॥ श्री कृष्ण को इसमें कोई आपत्ति ही नहीं की कोई काम भाव से उनका चिंतन कर रहा है ॥ वे उसी काम को चरम तक ले जाकर अपने मिलन का मार्ग बना लेंगे ॥ परंतु हृदय में चिंतन हो कि क्या अभी विशुद्ध काम भी जगा हमारे मन में उनके लिये ! जिस प्रकार संसार में किसी युवती को किसी युवक से प्रेम होवे तो वह उसका चिंतन जिस प्रकार दिन रैन करती है क्या वैसा ही हम कर पाये क्या श्री कृष्ण के प्रति ॥ अभी तो वे भगवान ही लग रहे न हमें ॥ अभी उनके सन्मुख दैन्य ही जगता है लाज के स्थान पर न ॥अभी तो उन्हें कान्त मान मिलने की लालसा भी पूर्णता तक नहीं पहुंची  ॥ संसार में भी कामाग्नि बहुत कुछ भस्म कर देती है न तो यही जब उस परम प्रेमास्पद की ओर मुड जावे तो क्या शेष रहेगा फिर ॥ पर जब सब निःशेष होगा तभी तो  प्रेम बीज बोया जायेगा न ॥ शेष फिर ....॥ तृषित।।

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