छोड़ो मोहन , छोड़ो न ....
मैंने तो यूँ कहा था मधुसूदन उस रात अंग लगी थी जब
और तुमने सच में मुझे छोड़ ही दिया ।
तुम तो ना लौटने को आये थे , फिर ना कुछ और छुने को छुये थे
पर देखो तुम लौट भी गए , अब छु रहा है और कोई
इस प्रेम डगर पर चली थी मैं ... पर मुहब्बत तुम्हारी ही थामी थी मोहन
मुझसे कहाँ होनी थी ऐसी कोई साजिशें जहाँ कर लेती तुम्हारा शिकार मैं मोहन ।
तुम आएं , प्रेम सरिता बहा लाएं , वेणु रस में सब साज मेरे सजाने आएं ।
लो तुम आएं तो सब छोड़ ही दिया , अपने स्वप्नलोक से सम्वन्ध तोड़ ही लिया ।
अब दिवा रात्रि तुम , स्वप्न जागृति तुम , तुरीय सुक्षुप्ति भी तुम और इनसे परे भी तुम ।
पर तुम न माने और दे कर ही गए विरह सृष्टि अपार ।
अब वेणु नहीँ क्रंदन है सुनता ऐसे क्रंदन से कर्ण पट तब भी नहीँ फटता ।
जान लिया मैंने तुम्हारे विरह से भीष्ण कोई नर्क नहीँ ।
तुम न हो इससे तीव्र यातना और है कहीँ ।
पर तुम न सुनने वाले कहीँ , जब यह विरह मुझे भाने लगा ।
विरह के रूदन पर मन नटराज सा तांडव नृत्य करने लगा ।
श्वसन मेरा गहन केदार राग के तारों में डूबने ही लगा ।
तव आतुर पिपासु प्रियजन से चित् मेरा रमने जो लगा ।
तुम ने फिर लें लिया अपना विरह भी , विषाद भी , आह्लाद नहीँ क्रंदन तुम ले गए ।
एक पाषाण पिंड कर जले कागज को तृषित कर तृषा भी लें गये ।
अब जो है वह शब्दहीन है , कण्ठ तालु सब है
हृदय चित् मस्तिष्क सब पाषाण है ।
टूटे पत्ते में भी हसरतें होती है , उसकी भी वार्ता तो होती है ।
पर मैं कौन हूँ अब क्योंकि सुनने वालों की तू पाषाणों संग भी चर्चा होती है ।
क्या मैं जड़ हूँ , क्या कभी मैं चेतन था ।
मोहन एक उपकार और करना वह चेतन की स्मृति अब जब आओ लेते जाना ।
एक अंतिम आस भी तोड़ते जाना , अधूरा अंत नहीँ सहा जाता , इसे पूरा करते जाना ।
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...
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