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मनुष्य का मूल स्वभाव क्या है ? प्रेम । तृषित

मनुष्य का मूल स्वभाव क्या है ?
प्रेम ।
प्रेम का अंकुर इस जन्म में नहीँ गिरा ।
वो तो चेतना का ही एक रूप है ।
एक प्रेम ऐसी चीज़ है , जिसे जीव को
सिखाने की आवश्यकता नहीँ  ।
हाँ प्रेम के दर्पण पर कालिख लगी हो
तो उसे तो हटाना पड़ेगा ही ।
संसार में आपको प्रेमी ना मिला तो
अप्रेमी भी ना मिलेगा ।
सैकड़ो साल साहित्य में प्रेमग्रन्थ रचे और
स्वीकारें गए ।
अब सब से अधिक जिस भाव पर
मनोरंजन होता है वो है प्रेम ।
मनुष्य के भीतर प्रेम ना हो तो
कैसे कोई प्रेमकथा पर बनी फ़िल्म
300 करोड तक का व्यापार कर सकती है ।
प्रेम के मनोविज्ञान को समझ , उसके आधार
पर अब बहुत बड़ा व्यापार होने लगा है ।
परन्तु इस व्यापारिक भाषा से प्रेम की
परिभाषा ही बदल गई है ।
प्रेम सर्वोच्च वो शाखा है जहाँ बैठा परिंदा ना
ऊपर ही उड़ पाता है , ना नीचे ही जा पाता है ।
एक मूक स्थिति ।
वास्तव में प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति और
स्वतन्त्रता है । जहाँ रूह जीने लगती है । और
रूह के इस नशे में इंद्रियों को रस तो मिलता है
परन्तु रस को वैसा ही व्यक्त कर पाने की कोई
भाषा ही नहीँ । शारीरिक कम्पन -भीतर की
गहराइयों में ऐसे हिलोरे लेता है कि ना तन पर
ना ही मन पर कोई नियंत्रण रह पाता है ।
कुछ आभास ही बयाँ हो पाता है । या कहे
इन लहरों , तरंगों के दूर जाने के बाद कुछ
बिखरी स्मृतियां ।
जिस भरपूर जीवन की खोज मनस्वी से शिक्षित
बुद्धिजीवी को है , वहीँ प्रेम में सहज है ।
वस्तुतः प्रेम में बीते कल की यादें है ।
आने वाले कल के हसीं ख़्वाब
और आज , अभी की अपने प्रियतम् से गुफ़्तगू ।
जो कल याद हो जायेगी । और फिर गहरी प्यास
लगेगी ।
कुल मिला कर प्रेम तीनोँ काल (भुत, भविष्य, वर्तमान) को अभी इसी समय (वर्तमान) में लाकर खड़ा कर देता है ।
प्रेम जीवन का मूल है ।
जीव का मूल स्वभाव है ।
और प्रेम का मूल है -- त्याग ।।
आज प्रेम को बड़ा हल्का मान लिया गया है ।
काम-कामना को ही प्रेम का शब्द दे दिया
गया है । प्रेम के तो बीज से उच्चतम् शाखा तक
त्याग ही सहज नित्य है । किसी के प्रेम में प्राप्तियों
को देख प्रेम पथ पर बहुत साधक चल रहे है ।
जबकि जहाँ प्राप्ति भी दिखाई देवे , वहाँ भी मूल
में त्याग ही है । बिना त्याग के प्रेम का फल फ़ीका
ही है । इस सहज नित्य त्याग से ही रस का माधुर्य
गहराता है । और यें त्याग भी वस्तु-भोग-पदार्थ
का नहीँ , गहराइयों से निकला त्याग है ।
अपने किसी दोष या विकार को छोड़ देना , कोई
व्यसन छोड़ देना त्याग नही है । यें तो शुद्धि ही है ,
स्नान । प्रेम में भोग नही, पर प्रसाद है । किसी भी
भाव भावना सुख और आनन्द तक को सीधे पा
लेना भोग ही है । कीर्तन में मिले सुख को जी लेना
रस नहीँ । अपितु उस निर्मल रस भाव को भी
समर्पित करना प्रेम है । प्रियतम् की सेवा , संग आदि
से प्राप्त सुख तक को सीधे धारण करना प्रेम नहीँ ।
प्रेम में प्राप्ति की अपेक्षा त्याग प्रधान है । इसलिए ही
आनंद कृष्ण रूप है , और रसीली किशोरी जु प्रेममय । श्री कृष्ण अपने ही आनन्द को प्रेमपात्र में डाल कर
पीते है और वहाँ उस आनंद को उन्हें पिलाने में किशोरी जु सहज त्यागमयी हो जाती है । वहाँ आनन्द
की वर्षा तो होती है , परन्तु उस परम् रस-आनन्द का
बाहरी स्पर्श तो दिखता है , भीतर तनिक भी लेशमात्र
उसका भोग नहीँ होता । आनन्द और रस का समर्पण
कृष्ण सुख में । और परम् आनन्दित स्थितियों को भी
भोगने की अपेक्षा प्रियतम् में समर्पण करना ही परम्
सुख की वह स्थिति है जो प्रेम में सर्वोत्तम भावना है ।
प्रेम में प्रियतम् के सुख का ही भाव है  , भीतर तनिक
अन्य वांछा नहीँ । इस विषय पर और गहराई से जाने
का मन तो होता है , परन्तु कह पाना असहज सा ही है । अग़र आप प्रेम पथिक है , तो किसी भी चाह की
अपेक्षा नित्य नव त्याग की भावना को पल्लवित करें ।
और इस पथ पर मिलने वाले दिव्य सुख तक का भोग
ना कर त्याग ही करें । त्याग और अधिक दिव्य स्थितियों तक लेता ही जाएगा । प्रेम में प्रियतम के
सुख की भावना से प्रियतम् का भी त्याग सहज हो
जाता है । जो कि मृत्यु से भी कठिन स्थितियां है । सत्यजीत "तृषित" । गहराइयों से अपने परम् प्रियतम्
के लिए प्रेम में किये जाने वाले त्याग का चिंतन कीजिये । प्रेम में सुख वहीँ है जहाँ प्रियतम् की सिद्धि
अब अग़र अपने ही हाड मांस को बेच वो सम्भव
होती दिखे तो भी बहुत सस्ती घटना है ।

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