Skip to main content

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

रति, प्रेम और राग के तीन-तीन प्रकार

कृपापत्र मिला। आपके प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में इस प्रकार हैं-
भगवान श्रीकृष्ण आनन्दमय हैं। उनकी प्रत्येक लीला आनन्दमयी है। उनकी मधुर लीला को आनन्द-श्रृंगार भी कह सकते हैं। परंतु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उनका यह आनन्द-श्रृंगार मायिक जगत् की कामक्रीडा कदापि नहीं है। भगवान की ह्लादिनी शक्ति श्रीराधिकाजी तथा उनकी स्वरूपभूता गोपियों के साथ साक्षात् भगवान श्रीकृष्ण की परस्पर मिलन की जो मधुर आकांक्षा है, उसी का नाम आप आनन्द-श्रृंगार रख सकते हैं। यह काम-गन्धरहित विशुद्ध प्रेम ही है। श्रीकृष्ण की लीला में जिस ‘काम’ का नाम आया है, वह अप्राकृत ‘काम’ है। ‘साक्षान्मन्मथमन्मथ’ भगवान के सामने प्राकृत काम तो आ ही नहीं सकता।
वैष्णव भक्तों ने रति के तीन प्रकार बतलाये हैं - ‘समर्था’, ‘समन्जसा’ और ‘साधारणी’। ‘समर्था’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के सुख की एकमात्र स्पृहा और चेष्ठा रहती है। यह अप्राकृत है और व्रजमात्र में श्रीमती राधिकाजी में ही इसका पूर्ण विकास माना जाता है। ‘समन्जसा’ रति उसे कहते हैं, जिसमें श्रीकृष्ण के और अपने - दोनों के सुख की स्पृहा रहती है; और ‘साधारणी’ रति उसका नाम है, जिसमें केवल अपने ही सुख की आकांक्षा रहती है। इन तीनों में ‘समर्था’ रति सबसे श्रेष्ठ है। इसका प्रसार महाभाव तक है। यही वास्तविक ‘रस-साधना’ है।
प्रेम के भी तीन भाव बतलाये गये हैं - ‘मधुवत्’, ‘घृतवत्’ और ‘लाक्षावत्’। ‘मधु’ भाव का प्रेम वह है, जो मधु की भाँति स्वाभाविक ही मधुर है, जिसमें स्नेह, आदर, सम्मान, सेवा आदि अन्य किसी भाव का न तो जरा-सा मिश्रण ही है और न आवश्यकता ही है, जो नित्य-निरन्तर अपने ही अनन्य भाव में आप ही प्रवाहित है। ये प्रेम होता है केवल प्रेम के लिये। इसमें प्रेमास्पद का सुख ही अपना परम सुख होता है। अपना कोई भिन्न सुख रहता ही नहीं। इस प्रेम में प्रेमास्पद का स्वार्थ ही अपना एकमात्र स्वार्थ होता है। पूर्ण आत्मसमर्पण ही इसका रहस्य है और नित्यवर्धनशीलता ही इसका स्वभाव है। यह वस्तुतः अनिर्वचनीय भाव है। ‘घृत’ भाव का प्रेम वह है, जिसमें पूर्ण स्वाद और माधुर्य उत्पन्न करने के लिये घृत में नमक, चीनी आदि की भाँति अन्य रसों के मिश्रण की आवश्यकता है। साथ ही, घृत जैसे सर्दी पाकर कड़ा हो जाता है और गरमी पाकर पिघल जाता है, वैसे ही विविध भावों के सम्मिश्रण से इस प्रेम के भी रंग बदलते रहते हैं। यह प्रेमास्पद के द्वारा आदर-सम्मान पाकर बढ़ता है और उपेक्षा-घृणा पाकर मर-सा जाता है। इसमें प्रेमी अपने प्रेमास्पद को सुखी तो बनाना चाहता है, परंतु स्वयं भी उसके द्वारा विविध भावों में सुख की आकांक्षा रखता है। यदि प्रेमास्पद से आदर-सम्मान नहीं मिलता तो यह प्रेम घट जाता है। इस प्रेम में स्वार्थ का सर्वथा अभाव नहीं है। न इसमें पूर्ण समर्पण ही है।
‘लाक्षा’ भाव का प्रेम वह है, जो चपड़े के समान स्वाभाविक ही रसहीन और कठोर होने पर भी जैसे चपड़ा अग्नि का स्पर्श पाकर पिघल जाता है, वैसे ही प्रेमास्पद को देखकर उदय होता है। प्रेमास्पद के द्वारा भोग-सुख प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य होता है।
श्रीराधिकाजी के प्रेम को ‘मधुवत्’ चन्द्रावलीजी आदि के प्रेम को ‘घुतवत्’ और कुब्जा आदि के प्रेम को ‘लाक्षावत्’ कह सकते हैं।
इसी प्रकार राग के भी तीन प्रकार माने गये हैं - ‘मन्जिष्ठा, ‘कुसुमिका’ और ‘शिरीषा’।
‘मन्जिष्ठा’ नामक लाल रंग की चमकीली बेल का रंग जैसे धोने पर या अन्य किसी प्रकार से नष्ट नहीं होता और अपनी चमक के लिये किसी दूसरे वर्ण की भी अपेक्षा नहीं रखता, उसी प्रकार ‘मन्जिष्ठा नामक’ राग भी निरन्तर स्वभाव से ही चमकता और बढ़ता रहता है। यह राग श्रीराधा-माधक के अंदर नित्य प्रतिष्ठित है। यह राग किसी भी भाव के द्वारा विकार को प्राप्त नहीं होता। प्रेमोत्पादन के लिये इसमें किसी दूसरे हेतु की आवश्यकता नहीं होती। यह अपने-आप ही उदय होता है और बिना किसी हेतु के आप ही निरन्तर बढ़ता रहता है।
‘कुसुमिका’ राग उसे कहते हैं, जो कुसुम्भ के फूल के रंग की तरह हृदय क्षेत्र को रँग देता है और मन्जिष्ठा और शिरीषादि दूसरे रागों को अभिव्यन्जित करके सुशोभित होता है। कुसुम्भ के फूल का रंग स्वयं पक्का नहीं होता, परंतु किसी दूसरी कषाय वस्तु को साथ मिला देने पर वह पक्का और चमकदार हो जाता है। वैसे ही यह राग भी श्रीकृष्ण के मधुर मोहन सौन्दर्यादि कषाय के द्वारा पक्का और चमकदार हो जाता है।
‘शिरीषा’ राग अल्पकालस्थायी होता है। जैसे नये खिले हुए शिरीष के पुष्प में पीली-सी आभा दिखायी देती है, परंतु कुछ ही समय मे वह नष्ट हो जाती है, वैसे ही यह राग भी भोगसुख के समय उत्पन्न होता है और वियोग में मुरझा जाता है। इसी से इसका नाम ‘शिरीषा’ है।
जिनका जीवन श्रीकृष्ण-सुख के लिये है, उनकी रति ‘समर्था’ प्रेम ‘मधुवत्’ और राग ‘मन्जिष्ठा’ होता है। जिनका दोनों के सुख के लिये है, उनकी रति ‘समन्जसा’, प्रेम ‘घृतवत्’ और राग ‘कुसुमिका’ होता है; और जिनका प्रेम केवल निजेन्द्रियतृप्ति के लिये ही होता है, उनकी रति ‘साधारणी’, प्रेम ‘लाक्षावत्’ और राग ‘शिरीषा’ होता है। इनमें पहले भाव उत्तम, दूसरे मध्यम और तीसरे अधम हैं। जयजय श्यामाश्याम ।।।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात