Skip to main content

लीलामय भगवान 1 - भाई जी

1- भगवान के कर्म भगवान के स्वरूप से भिन्न नहीं हैं। इसीलिये भगवान के कर्मों का नाम कर्म नहीं, लीला है। लीला सच्चिदानन्दस्वरूप का चित्स्वरूपविलास है। जैसे समुद्र की तरंगे समुद्र के ही विलास हैं, वैसे चिद्-घन-सिन्धु भगवान की लीला चित्स्वरूप के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
2- भगवान की अचिन्त्य महाशक्ति में विश्वास किये बिना लीला में रस नहीं आयेगा। उसमें स्थान-स्थान पर संदेह उत्पन्न होगा या उन लीलाओं का आध्यात्मिक अर्थ लगाकर उनका माधुर्य नष्ट कर दिया जायगा। भगवान की लीलावली भक्तों के सामने नित्य सत्य है और वास्तव में तो सत्य है ही।
3- लोगों के देखने में वृन्दावनधाम आठ कोस लम्बा तथा चार कोस चौड़ा है, पर भगवान का धाम अचिन्त्य चिन्मयस्वरूप है। उसके एक-एक धूलकण में अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों का समावेश हो सकता है और है।
4- भगवान की प्रकट लीला में जितने भी लीलासहचर वात्सल्य, सख्य, एवं मधुरभाव रखने वाले हैं, वे सब-के-सब भगवान के ही स्वरूप हैं; क्योंकि वे सभी भगवान की लीला-पार्षद हैं। उनके द्वारा जो भी चेष्टा होती है, वे जो कुछ भी करते हैं, करने की चेष्टा करते हैं, सब भगवान की इच्छा शक्ति से समन्वित लीलाशक्ति के द्वारा होता है तथा यह सब भगवान की लीला का उपकरण है।
5- भगवान की बाललीलाएँ ठीक प्राकृत बालकों की भाँति होती है। उनमें अप्राकृत भाव देखने को नहीं मिलता। अप्राकृत का यह विचित्र प्राकृतानुकरण देखने में बड़ा मनोहर होता है। जिनके संकल्प से अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन, पालन, संचालन होता है, उनकी प्राकृत लीला को देखकर यह भ्रम होना स्वाभाविक ही है कि ये सर्वेश हैं कि नहीं। यदि कोई उनके चरणों की शरण लेकर माधुर्य ग्रहण करना चाहे तो उसे ज्ञात होगा कि अप्राकृत की यह प्राकृत लीला कितनी मधुर है। भगवान की ‘भक्तवत्सलता’ एवं ‘प्रेमाधीनता’ का यहीं पता लगता है।

अखिल ब्रह्माण्डपालक होकर भी वे अपने असीम ऐश्वर्य का तनिक-सा भी प्रकाश न करके साधारण बालकों के साथ ठीक बालक होकर खेलते हैं। पर ऐसा नहीं मानना चाहिये कि वे कोई दम्भ करते हैं; वे सचमुच ही खेलते हैं, सचमुच ही उन्हें इसमें आनन्द मिलत है। आनन्द को आनन्द देना, आनन्दमय में आनन्द की कामना - स्पृहा उत्पन्न करना, यह प्रेमी भक्तों का ही काम है। आनन्द का रस लेने के लिये ही भगवान वात्सल्य, सख्य, मधुर आदि रसों की प्रेमी भक्तों के अनुरूप लीला करते हैं। अप्राकृत की लीला अप्राकृत है, पर देखने में प्राकृत-सी है। प्रेमी भक्तों को सुख हो, भगवान उसी प्रकार की लीलाएँ करते हैं। प्रेमियों के सुख में उन्हें सुख होता है। उनके श्रीकृष्ण आदि अवतारों की लीलाएँ नयी नहीं हैं; वे तो नित्य होता हैं और नित्य होती रहेंगी - यह नहीं कि पहले नहीं थीं, अब प्रकट हुई हैं। भगवान जिस प्रकार नित्य हैं, उसी प्रकार उनकी लीलाएँ भी नित्य हैं। इनमें मायिक जगत् का काम नहीं। जो भक्त इनमें आनन्द लेते हैं, वास्तविक रूप में वे ही भाग्यवान् हैं।
6- लीलाशक्ति एवं कृपाशक्ति भगवान की समस्त शक्तियों में प्रधान हैं। कोई भी शक्ति इन दोनों शक्तियों के विरोध में आत्म प्रकाश नहीं करती। सारी शक्तियाँ इन दोनों शक्तियों के प्रकाश के लिये ही कार्य करती हैं और सदा इनके अनुगत होकर चलती हैं।
7- भगवान दम्भ नहीं करते, न नाट्य करते हैं। भगवान की जितनी भी प्रेमलीलाएँ होती है, उनमें भगवान जानते हुए भी अनजान की भाँति काम करते हों यह बात नहीं है। उनकी प्रत्येक लीला सच्ची है। लीलाशक्ति की इच्छा से वहाँ सर्वज्ञता शक्ति भी छिपी रहती है, यह उनकी प्रेमाधीनता है।
8- जीव की तुच्छ शक्ति के काँटे पर जब हम भगवान की क्रियाओं को तौलने जाते हैं, तब विफल ही होते हैं। पर यदि अपनी शक्ति को भूलकर श्रीकृष्ण की अचिन्त्य शक्ति की ओर ध्यान दें तो हमें ज्ञात होगा कि उनकी अचिन्त्य शक्ति के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है।
9- लीलामय के लीला-सिद्धान्त को समझने के लिये लीलामय के चरणों की शरण लेनी चाहिये। जो अपनी विद्या, पुरुषार्थ और अपनी शक्ति के बल पर उनको समझना चाहता है, जानना चाहता है, वह न तो भगवान को समझ ही सकता है और न जान ही सकता है। वह यथार्थ वस्तु को जान नहीं सकता और उसमें अपनी माया बुद्धि से, मायिक समझ से प्राकृत भाव घर कर बैठता है। भगवान की लीला को समझने के लिये भगवान की कृपा पर भरोसा करना, अचिन्त्य महाशक्ति की शरण लेना तथा श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय ग्रहण करना चाहिये; नहीं तो विपरीत धारणा हो जाती है, विश्वास नहीं होता और उस लीला में रूपक, कल्पना, माया, नाट्य, दृष्टान्त, प्रक्षिप्तता आदि दोष बुद्धि आ जाती है।

इस प्रकार हम लीला कथा सुनकर अविश्वास करके नाना प्रकार के अपराध कर बैठते हैं। हमारे पाप के साथ-साथ वक्ता को भी पाप का भागी होना पड़ता है। जो श्रीकृष्ण लीला में रंच मात्र भी अविश्वास करते हों, जो अपनी विद्वत्ता के कारण उसे रूपक, कल्पना आदि बताते हों, उनके सामने लीला-कथा नहीं कहनी चाहिये। श्रीकृष्ण लीला उन्हीं के सामने कहनी चाहिये, जो तर्क के स्थान पर विश्वास रखते हों तथा जो श्रद्धापूर्वक लीला कथा सुनना चाहते हों। भगवान की लीला अत्यन्त गुह्य है।

10- भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य तो सर्वत्र व्याप्त है, उसे देखने के लिये प्रयास नहीं करना पड़ता; पर उसका माधुर्य बड़ा गोपनीय है, उसका प्रकाश उनकी कृपा के बिना नहीं हो सकता। उनका माधुर्य तो उनकी मुग्धता में ही है। वे जब बहुत बड़े होकर भी बहुत छोटे बनते हैं, ज्ञानमय होकर भी अज्ञ बनते हैं, प्रेमी भक्तों के साथ मिलन एवं विरह की लीला करते हैं, उस समय उनका माधुर्य सिन्धु उमड़ता है और उसमें अनन्त एक-से-एक विलक्षण विविध तरंगें लहराने लगती हैं, जिससे सारा जगत परमानन्द-सुधा से आप्लावित हो जाता है।
"भाई जी" का यह भाव आगे भी जारी है , बात सरल तरह से कहीँ है फिर भी सन्देह रहित चित् रहे अतः शांत भाव से मनन कर गुरूजन का यथेष्ठ संग कीजिये  -- सत्यजीत तृषित ।

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात