लीलामय भगवान पार्ट 2
11- व्रज की गोपियाँ वात्सल्य और मधुर प्रेम की कल्पलताएँ हैं, जो श्रीकृष्णरूपी दिव्य कल्पवृक्ष से नित्य लिपटी रहती हैं।
12- भक्तों का आनन्द बढ़ाने के लिए भगवान का सच्चिदानन्दस्वरूप आनन्द समुद्र उमड़ता है, इसी कारण भगवान भक्त का आनन्द बढ़ाने के लिये अपनी हार भी स्वीकार करते हैं।
13- भक्त और भगवान में जब होड़ लग जाती है, तब भगवान अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं - यह भगवान की प्रेमाधीनता है। भक्त की प्रतिज्ञा की रक्षा भगवान अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर भी करते हैं। वे तो नित्य विजयी हैं, उन्हें कौन हराये? पर भगवान और भक्त की होड़ में भगवान हार जाते हैं।
14- भगवान की लीला-माधुरी और भक्त का प्रेम आपस में होड़ लगाये रहते हैं। भगवान की लीला भक्त के प्रेम को बढ़ाती रहती है और भक्त का प्रेम भगवान की लीला को। जिस प्रकार दर्शक और अभिनेता दोनों मिलकर अभिनय-माधुरी का उपभोग करते हैं, वैसे ही भक्त और भगवान मिलकर लीला-माधुरी का आस्वादन करते हैं।
15- परस्पर विरुद्ध धर्मों का युगपत् - एक ही समय साथ-साथ समावेश और समन्वय भगवान का स्वाभाविक गुण है। भगवान के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी इस विरोध का समन्वय नहीं है। भगवान अनन्त ऐश्वर्यवान होकर भी लीला में माँ यशोदा से एक-एक वस्तु माँगते हैं। सर्वदा सद्गुण रूप होने पर भी चोरी करते हैं। नित्य तृप्त होकर भी माता यशोदा के स्तन्यपान के लिये अमृत-आतुर रहते हैं।
अस्थूलश्चानणुश्चैव स्थूलोऽणुश्चैव सर्वतः।
अवर्णः सर्वतः प्रोक्तः श्यामो रक्तान्तलोचनः।।
‘वे स्थूल भी नहीं हैं, सूक्ष्म भी नहीं हैं। स्थूल भी हैं, सूक्ष्म भी हैं। वे अवर्ण-सब प्रकार से वर्णविहीन होते हुए ही श्यामवण्र तथा अरुणलोचन हैं।’ ‘नृसिंहतापिन्युपनिषद्’ में आया है -
तुरीयमतुरीयमात्मानमनात्मानमुग्नमनुग्नं वीरमवीरं महान्तममहान्तं विष्णुमविष्णुं ज्वलन्तमज्वलन्तं सर्वतोमुखमसर्वतोमुखम्।
भगवान ‘तुरीय’ हैं - (विराट, हिरण्यगर्भ, कारण से या जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति से अतीत चतुर्थ - तुरीय हैं,) साथ ही ‘अतुरीय’ हैं - (सबके ईक्षणकर्ता, अन्तर्यामी, सबके आत्मा या सब अवस्थाओं के आधार होने से सर्वरूप ‘अतुरीय’ हैं।) चेतन ‘आत्मा’ भी भगवान हैं, साथ ही जड ‘अनात्मा’ - अनात्मवस्तु भी भगवान हैं। भगवान ‘उग्र’ हैं - हिरण्यकशिपु का वध करने के समय भगवान इतने उग्र आकृति के थे कि देवता और लक्ष्मीजी तक उन्हें देखकर डर गये; उसी समय वहीं वे भक्त चूड़ामणि प्रह्लाद के लिये ‘अनुग्र’ - परम शान्त हैं। अघ-वकादि असुरों का संहार करने के लिये वे महान् ‘वीर’ हैं, साथ ही गोप-बालक आदि प्रेमी भक्तों के सामने ‘अवीर’ - सदा ही पराजित हैं। वे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डों को अपने एक-एक रोमकूप में धारण करने वाले ‘महान्’ हैं, साथ ही यशोदा मैया की छोटी-सी गोद में नन्हें-से शिशु रूप में विराजित ‘अमहान्’ - क्षुद्र हैं। वे ‘विष्णु’ - सर्वव्यापी हैं और लीलाविग्रहरूप में भक्तों के प्रेमानुरूप आकृति वाले ‘अविष्णु’ एकदेशीय हैं। वे नेत्रों की तीव्र ज्वाला से असुर समूह को भस्म करने वाले - ‘ज्वलन्त’ हैं, साथ ही भक्तों के लिये परम स्निग्ध शान्त नयानानन्द-दाता के रूप में प्रकट - ‘अज्वलन्त’ हैं। भगवान ‘सर्वतोमुख’ हैं - उनके हाथ, पैर, नेत्र, सिर और मुख सब ओर हैं (सर्वतःपाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्) और वृन्दावनादि मधुर लीला में वे ‘असर्वतोमुख’ - दो हाथ, दो चरण, दो नेत्र तथा एक मुख वाले लीला विग्रह रूप से आनन्द बढ़ाते रहते हैं।
वे निर्गुण रहते हुए ही सगुण हैं, निराकार रहते ही साकार हैं; पूर्णकाम होते हुए ही सकाम हैं और अजन्मा रहते हुए ही जन्म धारण करते हैं। वे सब कुछ हैं, साथ ही सबसे अतीत हैं।
वस्तुतः यह विरुद्धधर्माश्रयता ही भगवान की भगवत्ता है। इसको बिना समझे उनकी लीलाओं का सामन्जस्य नहीं हो सकता, परम मधुर लीलारस का आस्वादन नहीं हो सकता और न अचिन्त्य ऐश्वर्य का ज्ञान ही हो सकता है। इस प्रकार भगवान के स्वरूपज्ञान में कमी रह जाती है। भगवान का रोन, क्रोध करना, स्तन का दूध पीने आदि के लिये व्याकुल होना न तो प्राकृतिक है और न काल्पनिक ही। यह उनका ‘प्रेमाधीनता’ रूप नित्य स्वाभाविक गुण है।
16- बालस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का क्रोध एवं अश्रुजल दर्शकों को प्रसन्न करने के लिये किया जाने वाला नाट्य - अभिनय नहीं है, वह तो श्रीकृष्ण के आन्तरिक बाल्यभाव की मधुर अभिव्यक्ति है। भगवान दम्भ भी नहीं करते। ‘भगवान को वास्तव में दुःख थोड़े ही हुआ था, उन्होंने तो छल किया था’ - ऐसे विचारों से रस नष्ट हो जाता है। ऐसे विचारों से तो भगवान की माधुरी एवं भक्त की वात्सल्य दोनों खो दिये जाते हैं।
17- आन्तरिक भाव की बाह्य अभिव्यक्ति किसी दर्शक या अनुमोदक की अपेक्षा नहीं करती। आन्तरिक भाव का स्वाभाविक विकास वहीं होता है, जहाँ जन-समूह नहीं होता। जन-समूह में कारण उपस्थित होने पर भी आन्तरिक भाव प्रकट नहीं होता। अकेले में निस्संकोच भाव से आन्तरिक भाव प्रकट होते हैं। किसी के असली स्वभाव को जानना हो तो वह अकेले में क्या करता है, इसे देखना चाहिये; इससे उसका वास्तविक रूप प्रकट होगा। श्रीकृष्ण ने यशोदा मैया के दूध उतारते चले जाने पर अकेले में क्रोध करके दही के मटके को फोड़ डाला था और भाग गये थे। यह दिखाने का नाट्य नहीं था, असली भाव था।
18- मधुर लीला, प्रेमी पार्षदों का अधिक जुटाव, रूप-माधुर्य और वेणु-माधुर्य - ये चार प्रकार के माधुर्य श्रीव्रजराजनन्दन में विशेष रूप से विद्यमान हैं और ये व्रज में ही रहते हैं, उनके साथ मथुरा और द्वारका नहीं जाते।
19- भगवान के प्रेम रहस्य को प्रेमी भक्त खोलना नहीं चाहते और न खुलवाना ही चाहते हैं।
20- श्रीयशोदाजी के हृदय में अपने पुत्र श्रीकृष्ण के सिवा और कुछ रहता ही नहीं। प्रेम भावमय होता है। उसके हृत्-पटल पर भगवान श्रीकृष्ण का बाल-विग्रह सदा अंकित रहता है; क्योंकि उनका हृत्-पट भावरस-आप्लावित है।
21- भगवान के जितने वस्त्र हैं, अलंकार हैं, अस्त्र-शस्त्रादि हैं, सब-के-सब दिव्य, चेतन एवं सच्चिदानन्दमय हैं और भग्वत्स्वरूप हैं। वे वैसे अदृश्य रहते हैं, पर समय-समय पर किसी घरवाले के या भक्त के माध्यम से प्रकट हो जाते हैं। यशोदा मैया जब श्रीकृष्ण को कोई आभूषण आदि पहनाती हैं, तब भगवान के वे अदृश्य आभूषण आदि किसी-न-किसी रूप में उनके कोषागार में प्रकट हो जाते हैं और उन्हीं आभूषणों से मैया उनका श्रृंगार करती हैं; किंतु भक्त को अथवा घर वालों को यह ज्ञात नहीं होता कि भगवान के दिव्य आभूषण प्रकट हुए हैं और वह उनके द्वारा उनका श्रृंगार कर रहा है।
22- भगवान की लीला के सम्बन्ध में जिस समय कोई संदेह होता है, वह समय वस्तुतः हम भगवान को भगवान नहीं मानते, उन्हें अपनी श्रेणी में ले आते हैं; नहीं तो, कोई संदेह हो ही नहीं सकता। भगवान का प्रत्येक कार्य, प्रत्येक वाणी देखने में विपरीत जान पड़ने पर भी तत्त्वतः सत्य है।
23- भगवान की लीला-कथा अत्यन्त रुचिकर, सबको समान सुख देनेवाली, किसी भी वस्तु की अपेक्षा न रखने वाली तथा अमोघ है।
भाई जी का यह लेख (प्रवचन) जीवन भर मिलते रहे किन्हीं चुभते प्रश्नों का समुचित उत्तर है , ज़ारी है , लेख विस्तार के लिए क्षमा । सत्यजीत तृषित ।
Comments
Post a Comment