तरह तरह के उपक्रम से बार बार भगवान उद्धार क्यों करते है , लीला दर्शन के लिये ।
मान लीजिये किसी पुत्र की याददाश्त चल जावें और उसे पुराना याद दिलाने के लिये माता पिता पुनः पुनः प्रयास करें ।
एक बीज रूप हमारा स्वरूप है । एक निश्चित नियत भाव । आज अनेक भाव , अनेक वृत्तियोँ की शाखाएं लग गई है । अतः स्वरूप छुट गया है । यहाँ समस्त वृत्ति हमारी नहीँ वह नकल भर है , जन्म से नेत्र हीन कभी जगत् के अभिनय को ना देख सकने से सभ्यता , व्यवहार का भी अभिनय नहीँ कर पाते । सरल चित् रहते है , क्योंकि उन्हें नहीँ पता इस संसार में बस में 50 लोग बैठे हो तो सब एक दूसरे से नजर फेर गम्भीर भाव से अपरिचित्तता निभाते है । यह सब अभिनय है , देख कर सीखा । बिन देखे नहीँ आता , केवल सुन कर यह नहीँ आता जन्मजात नेत्रहीन की वृत्ति इसका उदाहरण है वहाँ आवरण कम है ,हाँ सिखाया जावें तो उन्हें भी जगत् के अभिनय सिखाये जा सकते है ।
मूल स्वरूप के लिये वृतियों से लौटना होगा , उसे ही अपना स्वभाव जानना होगा यह कृपा से सहज है ।
ज्ञानी को लीलारस नहीँ मिलता , ज्ञानी उनके आत्मरूप में स्वप्रकाश ब्रह्म रूप में प्रतिष्ठित रहते है ।
पूर्व में आनन्ददायिनी लीला का अनुभव करा कर विरह बढ़ा देते है ।
फिर विरह से ही स्वभाव की जागृति होती है । जगत् में रहकर विरह होने भगवत् संग ही रहता है और अपने वशुद्ध सत्व यानी भावदेह का प्राकट्य होता है । यहाँ होकर कहीँ और पृथक् स्वरूप अपना जान लिया जाता है ।
स्वभाव की जागृति आवश्यक है । और यह अनिवार्य चेष्टा करने पर भी चेष्टा से जागृत नहीँ होता । भगवान ही स्वतः प्रेरित होकर ही जीवों का उद्धार करते है ।
मूल में उनका वरण है , उनका पकड़ लेना , स्वीकार्य कर लेना ।
इस तरह स्वरूपदेह प्राप्त होती है । की नहीँ जाती यह करुणा का महाफल है । वस्तुतः प्रत्येक जीव की नित्य अवस्था है सभी लोक में वह यहाँ स्थूल से बहुत गहरा बन्ध गया है । यह स्वरूप अवस्था स्व शक्ति से प्रगट नहीँ होती । वहाँ तक सामर्थ्य नहीँ जाता ।
स्वरूपदेह का आकार स्थूल देह के आकार के अनुरूप ही होता है यह भ्रम नहीँ करना चाहिये । यहाँ मानव रूप भी वहाँ पशु पक्षी हो सकते है और यहाँ पशु पक्षी भी वहाँ नरदेह हो सकते है । स्वरूप देह नित्य है और कर्मजन्य नहीँ । भौतिक देह कर्मजन्य है । निर्मल चाह रहित भजन करना है , हम मिलन चाहते है पर स्व हेतु , यह भावना भी अहेतु हो तब सहज अहेतु कृपा होनी होगी ही । क्षमा जी । सत्यजीत तृषित ।
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग
Comments
Post a Comment