मेरे प्रियतम् .....
कब से रस क्षेत्र के द्वार पर हूँ इन लताओं और वृक्षों पर चढ़ उतर खोज रही हूँ किन्हीं को , किन्हें ? अरे मेरे प्राण सर्वस्व प्रियाप्रियतम ।
यूँ तो सभी के जाने पर भी निकुँज से बाहर नहीँ निकलती परन्तु कल न जाने क्यों प्रिया प्रियतम पीछे पीछे यहाँ बाहर आ गई और फिर रस क्षेत्र अदृश्य ही हो गया । यहाँ रस क्षेत्र (निकुँज) की गिलहरी का बाहर क्या काम , मेरे तो सब भोग और रस वहीँ है, अतः तभी से निर्जल हूँ ।यहाँ का जल ना ही तो प्यास ही बुझाता है , न ही कोई फल वैसा रसीला जैसा वहाँ प्रियतम द्वारा प्रिया संग चखा हुआ फल । जिस पात्र से वह जल पिले उसी शेष रस जल को करुणामयी सखियाँ वहाँ नदियों और सरोवर में बारी बारी डाल देती है । वहीँ तो हम वहाँ पीते है । और कभी-कभी मैं तो रात्रि में भीतर ही रहती हूँ , वहाँ उनके थाल और जलपात्र से उनका रसमय प्रसाद पा लेती हूँ । पूछती नहीँ , पूछना क्यों ? गिलहरी हूँ कोई मानवीय देह नहीँ , इतना परायापन नहीँ मुझे आता , जो उनका हुआ वह स्वतः मेरा हुआ यह ही समझ आता है । बस पहले उन्होंने उसे पाया हो , वरन् तो इंद्र अमृत पिलायें ,नहीँ पीना । स्वयं देवता वैकुण्ठ लें जावें ,मुझे नहीँ जाना । जहाँ मेरे प्रियप्रियतम वहीँ मैं । हाँ इंद्र मुझे छल सकते है यह युगल पद रज बिछा कर पर वह जानते है इसका स्पर्श ही सम्पूर्ण विचारों का त्याग अर्थात् संन्यास और प्रियप्रियतम से तीव्र प्रेम अनुराग देने वाला है। अतः मैं सुरक्षित हूँ अपने प्रियप्रियतम के धाम , हाँ मुझे यूँ प्रेम मूर्छा में बाहर न आना था । अब न जाने यहीँ प्रकट रस साम्राज्य कहाँ चला गया सन्मुख वट , पीपल और कदम्ब के महावृक्ष है । कदम्ब के पोखर से न कोई आ रहा है न ही जा रहा है , कही यहीँ तो द्वार नहीँ ! पर मैं कहीँ जा नहीँ सकती , न जाने यह द्वार कहाँ लें जावें । यही प्रतीक्षा करना उचित है , हरि नहीँ उनका अद्भुत रस स्मरण तो संग है , और श्री प्रिया उनकी छवि का आभास ही मुझे मूर्छा दे रहा है न जाने कैसे अनेकों बार मैं उनकी गोद में जा चढ़ी और उन्होंने भी मुझे उठाया । यह कैसे हुआ ? क्योंकि इतना रस स्पर्श कैसे मुझे सहज स्वीकार हुआ जब स्मरण मात्र से रोमान्च हो रहा हो , सम्भव है यह श्री जी की ही कृपालीला हो ।
अहा वेणु रव की सौरभ कानों में उतरने लगी ! अब मुझे उतावला नहीँ होना , वें आते होंगे ! मेरा तन मन नाच रहा है , पर नहीँ , मुझे अब रस को भीतर उन्मुख करना होगा ! कहीँ नृत्य उन्माद में मैं पुनः बाहर न रह जाऊँ ! स्वयं को पूर्ण रसमय होने में ही युगों तक की पथ परिक्रमा होती है , फिर रस पान कर भी रस मयता से ऊपर उठ युगल संग करने हेतु की लालसा तो अहा , निःशब्द !!
लो अब तो स्पष्ट महक आने लगी , लम्बे समय से निर्जीव मेरे रन्ध्र जी उठे । जिस वायुमण्डल में प्रियाप्रियतम की अंग-सुअंग सौर्भित पवन ही न हो , पता नहीँ कैसे वहाँ कोई जीवित रह लेता है । मैंने तो कल से ही श्वांस रोक ही रखा था , अपने प्यारों को छु कर नहीँ आवें ऐसी प्राणवायु तो सर्वस्व हरण कर लेने वाली है ।
मेरे हृदय का स्पंदन प्रियप्रियतम के स्पर्श की सुगन्धित वायु स्पर्श से ही है , ना की यह जीवन जीवित रहने के लिये अपने सर्वस्व प्राणधन की सौरभ और महक रहित वायु पीने भर के लिए है , जीवन तो है उनके दिव्य संग में नित्य रज कण की सेवा । अपने मुख से गहन रस कक्षो में बिखरे पत्ते और रज कण को सम्पूर्ण दिवा रात्रि हटाते रहना । उन्हें तनिक भी असहजता न हो यही तो हमारा जीवन है , इसके अतिरिक्त स्वयं के होने का अन्य कोई कारण मुझे स्वीकार नहीँ .....
अहा फिर वहीँ गूँज , लग रहा है सखियों का समूह आ रहा है । इन्हीं सभी की तो प्रतीक्षा में थी मैं , फिर बैचेनी क्यों ? क्रमशः ..... सत्यजीत तृषित ।।।
॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...
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