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मनोभवराज्य लीला

मनोभवराज्य

पुष्पों की विहँसन , कलियों को संकुचित मुस्कान , पल्लवदलों की मधुर बतरान ने वन-उपवनों को मनगलोत्सव प्रदान किया । मोर-पपीहों के कलगान ने मंगल गीत गाए । सघन घनों ने श्यामल वितान तान दिया । दामिनी मंगल आरती उतारने को आकुल हुई रह रह कर दमकने लगी । धरती ने हरति दुकूल बिछा दिये । स्वागत वाद्य सी मेघ गर्जना दिशाओं को गुँजित करने लगी।  प्रसून मण्डिता तरु शाखाएं, कोमल लतिकायें झूम-झूमकर, झुक-झुककर झाँकने लगी, कि वह रसीले युग्म अपनी प्रियाओं द्वारा सेवित सज्जित यहाँ आ रहे हैं या नहीँ ।
यह लो, सुरभित समीर के एक सुवासित झोंके ने आ, प्रिय आगमन का सन्देश दिया । उनकी अंग सौरभ को वह साथ लाया था । पैंजनियों की झंकार , कटि मेखलाओं की रुन झुन , चूड़ियों- कंकणों की रुनक-झुनक ने खगरोर को स्तब्ध कर दिया । रंग-बिरंगे फहराते दुकूलों की छवि ने प्रसून-पल्लवों की छटा को स्तम्भित कर दिया । उन चपलाओं को अपने रसवारिद के संग योँ मदमाते देख, आकाश में घन दामिनी लजाकर रह गये ।
प्रियतम् के किसी विनोद वाक्य पर प्रिया जी हँस पड़ी । सखी समुदाय की खिलखिलाहट ने योग दिया, मानों अनेकानेक तडिताएं उपवन में उतर सहसा कौंध उठी हों । नभस्थ दामिनी ने सजातीय सान्निध्य पा, प्रफुल्लित हो सहयोग दिया । वह दमक उठी, पर इनकी सी कोमलता कहाँ से लाती ? इनकी सी मदिर मधुर हास झंकार किससे माँगती ?
उसकी कड़क से कोमलांगी किशोरी भयभीत हो गयीं और अपने नील वारिद के विशाल वक्ष में मुँह छिपा, उनसे लिपट गयीं ।
आज सहज ही रसिक प्रियतम् का मनचाहा हुआ । वह सब सुकुमारी बालाएं भी भीत हो सिमट आ गईं । उस समय की वह छवि छटा । वह अनूठी शोभा । प्रियतम् ने सभी को समाश्रय प्रदान किया ।उनकी भीति को दुलारा । कुछ ही देर में जब वह सब सजग हुईं , तो नरकेशरी ब्रजयुवराज खिलखिलाये । कुछ देर फिर हास-परिहास की धूम मची ।

अब प्रियतम् उठे , प्रियाजी के कर से कर जोडे , उन कुमुदिनी सी किशोरियों से घिरे , उपवन के भीतरी भाग में आ गये । उस तमाच्छन निकुँज में मन्द-मधुर ज्योत्स्ना सी छिटक गयी । लतावितान के नीचे स्वच्छ शिलाओं पर आसीन वह सजीव लतिकाएँ, जब प्रणय-झकोर से झकझोरी सी अपने उस श्यामल विटप से छू जातीं , तो उनकी मन्द मुस्कान और मधुर चितवन से , मानों मकरन्द की झड़ी लग जाती ।
प्रियाजी की स्मित-मधुरिमा और अवलोकन-रसधारा की निर्बाध गति, सखियों में नव-नव पुलकन और इन सुरस-तरु में नव-नव रसविलासोद्दीपन का सञ्चार कर देती । परस्पर-अवलोकन-चितवन की मदिर बौछारों से भीगी-भीगी सी यह प्रियाएँ, प्रेयसी श्रीराधा और प्रियतम् । रसवारिधि में हिलोरें उठ आईं । वह कुछ गुनगुनाने लगे । कन्दर्प-गीतिका की उस मूर्च्छनाभरी तान में रसीले प्रियतम् की रसललक पूर्ण कामना हिलोरें ले रही थी । उन हिलोरों में डुबी, खोयी वह ललनाएँ विवश सी होती जा रही थीं । एक दुसरी का सुधि संकोच भी आज साथ छोड़ गया था ।
अभी तक श्रीराधिकप्रियतम के वामस्कन्ध पर शीश टिकाए, एक भुजा उनकी कटि में लपेटे, दूसरा कर-कमल उनके अंक में धरें , भवमग्न बैठी थीं , अब वह तनिक हिलीं । उन्होंने तनिक मुँह उठा,नयन ऊपर किये । प्रिय की बंक अवलोकन-माधुरी ने फिर उनके नयनों को मुद्रित कर दिया ।मुदित नयनों पर मदन-मुद्रा अंकित कर, वह मदाम्बुधि ....... सब संयम की परिधि को लाँघ , स्वच्छन्द रसविलास के लिये व्यग्र हो उठे । मेघ गर्जना में मिला सा वह हुँकार-झंकारों का मेला ..... !! सरस हलचल से दीप्त आभरणों की झिलमिल, सकुचा कर दामिनी की दमक में अपने को छिपाने का असफल प्रयास करने लगी । ....... स्मर-स्वरों की वह अस्फुट रागिनी, पंछियों के कलरवों में ...... छिपने का विफल प्रयास करने लगी । श्रमसीकरों ने वर्षा की फुहारों का आश्रय लिया, पर ...... मनोभव-राज्य की कोई रससम्पदा गोप्य न रही और .......... !!!
जय जय राधिकामाधव सत्यजीत तृषित ।

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