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भोग अथवा भगवान ! अमृत अथवा सुरा राधाशरणदास जी ।

भोग अथवा भगवान ! अमृत अथवा सुरा ! मोक्ष अथवा जन्म ! देव अथवा असुर ! योगी अथवा भोगी ! पुण्य अथवा पाप ! धर्म अथवा अधर्म ! सज्जन अथवा दुर्जन ! भक्त अथवा संसारी !
चुनो, तुम्हें जो चुनना हो। जो प्रिय हो। स्वतन्त्रता है तुम्हें, श्रीहरि की ओर से। किसी के साथ कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं। स्वेच्छा से जो चाहो, चुनो। श्रीहरि की अहैतुकी कृपा के कारण हमें सब दिया गया है, पिपासा भी और अमृत-कुन्ड भी। सभी तो है हमारे पास किन्तु गुप्त रुप में। अपने-अपने "सिस्टम" में पड़े हुए "साँफ़्टवेयरों" के "पासवर्ड" खोजो। उन्हें खोजे बिना ये न जान पाओगे कि तुम्हारे पास क्या था? संभव है जीवन भर श्रीहरि को भी उलाहना देते रहो कि हमें कुछ नहीं दिया। जिस दिन पिपासा तीव्र हो जायेगी, खोज आरंभ होगी; तब मृग-मरीचिका भी दिखायी देगी किन्तु धैर्य रखना। मृग-मरीचिका से पार पाओगे तभी तो अमृत-कुन्ड मिलेगा। वे भेजेंगे किसी को अथवा स्वयं ही कोई रुप धर लें हमारी सहायता के लिये ! वे तो सबकी ही सहायता करते हैं, अर्जुन की भी और दुर्योधन की भी ! "निहत्थे" को कौन रखेगा, यह हमें तय करना है ! कौन चाहिये? श्रीहरि अथवा माया !
हम उनकी प्रार्थना करें तो ही श्रीहरि हम पर कृपा करेंगे तो यह तो सांसारिक बात हुयी कि जिसकी जी-हूजूरी करें, वह ही हमें रोटी देगा। परमात्मा तो वह हैं जो अपने से विमुख का भी पूरा भार उठाते हैं, सम्मुख अथवा प्रिय की तो बात ही और है क्योंकि सब उनके ही हैं, "सब मम प्रिय, सब मम उपजाये"। श्रीहरि को हमारी चापलूसी और सांसारिक भोगों की माँग करने पर बड़ी दया आती है; और बहुधा वह अपने बच्चों को उनका मान रखते हुए भोग प्रदान भी कर देते हैं क्योंकि वे अपने प्रेमी स्वभाव के कारण विवश हैं। बच्चा भले ही बाप को न माने, आदर न दे तो क्या बाप भी अपने बच्चे से बदला लेगा? उसे मालूम है कि समय आने पर, परिपक्वता आने पर बच्चा स्वयं अपनी भूल का सुधार कर प्रायश्चित करेगा। श्रीहरि का तो मानना है कि तुम अपने को मेरा ऋणी समझकर, स्वयं को असहाय मानकर, मेरी ओर मत आना वरन जब तुम अपने अंदर की खोज के बाद प्रेम से भर जाओ और मेरे पास आये बिना न रह सको, तब आना ! और तब भी क्यों? जिस दिन भी तुम प्रेम से भर जाओगे, उस दिन तुम, मुझे देख सकोगे क्योंकि तब तुम्हारा ह्रदय निर्मल हो चुका होगा, अंतर का कल्मष, अश्रुओं द्वारा धुल चुका होगा और तुम पाओगे कि मैं तो तुम्हारे पास ही खड़ा हूँ सदा से ही ! मैं जाऊँ भी तो कहाँ? तुम्हें छोड़कर !
किन्तु अंतर में सदैव चलने वाले देवासुर संग्राम में तो हमें अपनी भूमिका निभानी ही होगी। श्रीहरि साथ ही हैं किन्तु वासुकी का एक सिरा तो हमें भी पकड़ना ही होगा। यहाँ कोई तटस्थ नहीं रह सकता; यदि अमृत की खोज है तो ! हलाहल ही निकलेगा पहले ! विश्वास रखना; शिव-शंभो आयेंगे ही ! भयंकर हलाहल की ज्वाला से वे हमें बचायेंगे ही ! हम तो लगे रहें, भागें नहीं। हमें तो मथते रहना है, किसी रत्न [सिद्धि] से हमारा आशय हल नहीं होगा; सो किसी भी "रत्न" के प्रकट होने पर उल्लास से मत उछलना जब तक कि अमृत ही न निकल आवे। और जब अमृत निकलेगा तो मोहिनी के दर्शन होंगे ! उनके हाथों से ही अमृत-पान करना !
जय जय श्री राधे !

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