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लीलामय भगवान लेख 3 - भाई जी

लीलामय भगवान 3

24- भगवान के सम्बन्ध होते ही सब दोष मिट जाते हैं। भगवान ने अपनी यह शक्ति लीला-कथा में छिपा रखी है। भगवान ने कृपा करके अपनी लीला-कथा-माधुरी इसीलिये छोड़ रखी है कि जगत् के बहिर्मुख लोगों का कल्याण हो। ऐसे लोगों (बहिर्मुखों) से कहा जाय कि यम-नियम आदि करो तो कौन करेगा। पर कथा में कोई रोचक प्रसंग आ जाय तो उनका भी मन लग ही जाता है।
25- अग्नि को देखे नहीं, अग्नि को समझे नहीं, पर अग्नि से स्पर्श हो जाय तो अग्नि का वस्तुगुण दाहकता जला ही देता है और जलने पर उस पर श्रद्धा अपने-आप हो जाती है। इसी प्रकार लीला कथा से अपने-आप श्रद्धा प्राप्त हो जाती है।
26- बिना पुण्यबल के, बिना भगवत्कृपा के भगवत्कथा सुनने को मिलती ही नहीं। जो तार्किक हैं, वे उसी व्यर्थ मानते हैं और जो गृहासक्त हैं, उन्हें कथा सुनने का भी अवकाश नहीं।
27- भगवान की लीला-कथा के लिये एक ही उपाय है - उसकी जो धारा आती है, उसके लिये अपने कानों का मार्ग खोल दो। वह पीयूष धारा बिना बाधा के कानों में जाती रहे। वह धारा भीतर पहुँची कि उसने जन्म-जन्मान्तर के कूड़े की राशि को धो-बहा दिया। फिर आग की आवश्यकता नहीं रहेगी। और आग की आवश्यकता नहीं रहेगी। और आग को जलाकर भस्म का ढेर छोड़ देती है, पर यह इस प्रकार की बाढ़ है कि सब चीजों को दूर बहा देगी और साथ ही अन्तःकरण को बना देगी द्रवतामय। उसी श्रीकृष्ण प्रेम का साम्राज्य बना देगी।
28- जहाँ श्रोता के मन में तर्क नहीं, विवाद नहीं, केवल रस पीने की इच्छा है और केवल उस रस को बढ़ाने के लिये ही प्रश्न है, वही वास्तव में लीला-कथा में रस आता है।
29- कथा-अन्तरंग रहस्य-कथा वहीं पर प्रकट होती है, जहाँ वक्ता के मन में स्वतः श्रोता की रुचि एवं इच्छा देखकर वस्तु जाग्रत हो जाती है। कहने वाले के पास बहुत-सी बातें हैं, पर श्रोता की रुचि न देखकर वे छिप जाती हैं; किंतु एक समुदाय वह होता है, जहाँ बैठने से वक्ता के मन में नयी-नयी बातें उदय होती हैं। परीक्षित् की भाँति जहाँ श्रवण का आग्रह है तथा निरन्तर कथा श्रवण करने पर भी जहाँ तृप्ति नहीं- खाये जायँ और भूखे, खाये जायँ और भूखे - ऐसे समुदाय में वक्ता के मन में अन्तरंग नवीन-नवीन कथाओं की स्फूर्ति होती रहती है।
30- भगवान की लीला-कथा ही ऐसी है कि वह कैसे भी कानों में जाय, पाप-ताप को नष्ट कर देती है। पर जो श्रीकृष्ण के भक्त हैं, प्रेमी हैं, उनके मुख से यदि कथा सुनने का सौभाग्य मिल जाय, तब तो पाप-ताप रह ही नहीं सकते; क्योंकि उनका मन श्रीकृष्ण के साथ जुड़ा रहता है। अतएव वे जो भी शब्द उच्चारण करते हैं; श्रीकृष्ण की प्रेरणा से ही।
31- ज्ञानयोग से भगवान को ब्रह्म समझकर भजने वाले संसार से मुक्त होना चाहते हैं, अष्टांगयोग वाले समाधि में स्थित होकर परमात्म-ज्योति के दर्शन चाहते हैं, ऐश्वर्य ज्ञान युक्त भक्त लोग सामीप्यादि मुक्ति चाहते हैं। ये सब आत्महित चाहते हैं, श्रीकृष्णहित की चिन्ता किसी के मन में नहीं है। ये तो श्रीकृष्ण को नित्य सुखमय मानते हैं। पर जो लोग श्रीकृष्ण के साथ ममता के बन्धन से बँधकर उनको पुत्र, सखा, प्राणवल्लभ आदि मानते हैं, वे अपने सारे सुखों को भूलकर श्रीकृष्ण के हित की चिन्ता करते हैं। उपना अपना सुख-दुःख कुछ नहीं रहता। वे अहं को भूलकर केवल ‘श्रीकृष्ण-सुख’ रूप ही बन जाते हैं। श्रीकृष्ण भी ऐेसे ममतावान् भक्तों की ममता के अनुरूप लीला करके दिव्य प्रेमरस का आस्वादन करते हैं। ऐसे प्रेमी भक्त धन्य हैं।
32- भगवान जिस-जिसके साथ मिलकर लीला करते हें, वे सभी भगवान के पार्षद हैं। पार्षदों के दो भेद हैं - (1) अनुकूल पार्षद, (2) प्रतिकूल पार्षद। जो अनुकूल पार्षद हैं, वे लीला में सहायता करते हैं मित्ररूप से और जो प्रतिकूल पार्षद हैं वे सहायता करते हैं शत्रु-भाव से। दिव्यधाम में अनुकूल पार्षदों के साथ लीला होती है। वहाँ प्रतिकूल पार्षद अचेतनभाव से रहते हैं।
33- भगवान की कृपा शक्ति इतनी बलवती है कि सारी शक्तियाँ उसका अनुगमन करती हैं। भगवान भी उसके वश में होकर भक्त के नाना प्रकार के बन्धन स्वीकार करते हैं।
34- भगवान की जितनी लीलाएँ हैं, उनमें बाललीला परम उदार है। अन्य लीलाओं में यदि भगवान किसी को ज्ञान दे दें, राक्षसों को मार दें अथवा राजाओं को राजा बना दें तो इसमें कोई बड़प्पन नहीं है। बड़ा बड़ा बन जाय, इसमें कोई बड़प्पन नहीं; क्योंकि वह बड़ा है ही। बड़ा छोटा बन जाय, इसमें ही बड़प्पन है। बाललीला में भगवान को अज्ञ बालक बनना पड़ता है, अज्ञ बालकों के साथ स्वयं सम्मिलित होकर वैसी ही लीला करनी पड़ती है और इसी में उदारता है।
35- भगवान के माता-पिता, आभूषण, धाम, लीला, वस्तु आदि सब भगवान के ही स्वरूप हैं और सब नित्य हैं।
36- भगवान की लीलाओं का तत्त्व जानने की चेष्ठा न करके उन लीला-कथाओं का गायन करें, श्रवण करें, ध्यान करें - हमारा यही कर्तव्य है।
श्री भाई जी । जयजय श्यामाश्याम । पूर्व में दो भाग और दिए थे , उन संग इस तीसरे भाग का मनन करना चाहिये । सत्यजीत तृषित ।

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