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तृषित भाव 18- 4- 2016

मुझे ग़ुरूर था तेरी मुहब्बत पर सनम
कभी तू मुझसे रूठ कर भी मचलता था
तेरा ही ईश्क सच है
सो क़दम मैंने इस डगर पर गेरा था
अब तू ख़फ़ा हो चला राहे मंझधार छोड़
ग़र तेरी ही नैया पर तू ही माँझी रहा
अब तेरे ही समन्दर में यह डूबता भी कौन है
तुम्हें बहुत काम है हुज़ूर ,
मैंने डूबना भी कब सिखा था
जो संग चला तो तेरा
जो तर गया वो तेरा
जो डूब गया वो ग़ुरूर मेरा ?
तेरा कुछ डूब नहीँ सकता ,
ग़र मुझे डूबना है तो तेरा फिर हो नहीँ सकता । तृषित

काश मुझे एक अदद तेरी प्यास होती
तुम पुकारते जहाँ वहीँ बातें हमारी होती

पिया यह जो मैंने जाम पिया इसमें तुम नहीँ
तुम होते तो नशा गहरा होता
टीस और गहरी होती
आँख समन्दर से जा मिलती
हलक से आवाज ही क्या हवा तक ना निकलती
दर्दे जाम पीकर हम बेकार कही घायल होते

पर तेरे नाम पर कुछ पिया कि हलक अब नम सा है
वह दिल का घाव भरा सा है
कल तक सब चुभता था यहाँ फिर भला सा है
कोई और आरज़ू कभी की ही नहीँ
बस तेरे नाम ओ मुहब्बत की प्यास के सिवा
आज वह प्यास क्यों तुमने मुझसे दूर की
मुझे नहीँ तेरे पहरेदारों में होना है
ना ही कोई राजदार ही होना है
जिस महफ़िल में बिकती हो प्यास वहाँ ख़ुद को सरे आम बेचना है
अब भी ग़र कुछ मेरा है
तब तेरा वह हो जाएं
मेरे नसीब को एक प्यास की आरज़ू रह जाएं
"तृषित"

कभी तुम मुझे हर गली से छिप कर देखा करते
कभी किसी बाज़ार में हर रूप तुम ही दीखते
यह दीवार-तस्वीर हर जगह से तुम ही देखा करते
और ज्यों तुम देखते त्यों मै  बहती
और बहते बहते फिर तुम ही रह जाते
वह गर्म हवाओं का सर्द स्पर्श लौटा दो
वह झुकी निगाहें के उठने पर गिरते झरने लौटा दो
वह घड़ी दो घड़ी तुम्हें देख कर मचल जाने की फिज़ाएँ लौटा दो
हर ज़र्रे से होती हमारी अपनी वो प्रेम वार्ता ही लौटा दो
तुम भी न , तब छुआ , भरा , और , और और और ....
फिर चले कैसे गए ,
अरे यें ज़िस्म का नकाब हटा ही जाते
बस तुम , बस तुम , सिर्फ तुम , सिर्फ तुम कहते वह सहर बिता करती थी
अब कहाँ हो तुम , वहीँ तुम , सिर्फ तुम ।
ज़माने की दीवार कूद तेरे प्रेमउपवन आई थी
तुमने बख्शीश में फिर वहीँ ज़माना लौटा दिया
ग़र तुम शर्बतेशाह रस हो तो मुझे तलबियत प्यास करो
ग़र तुम हकीकते ज़िन्दगी हो तो मुझे तबियत से क़त्ल करो
ग़र तुम सुकूँ का बेहिसाब दरिया हो तो मुझे दर्दे ग़म से तासीर करो
जो भी करो मुझे मेरी तलब , वह प्यास और गहराई से लौटा भी दो
- तृषित ।

अभिन्नता

यह हमारी अभिन्न प्रीत पिया
जैसे अब भीतर ही नहीँ जहाँ जहाँ
खड़े हो तुम वहीँ वहीँ बहती मैं

जो भीतर उठता भी नहीँ
वह तुम उधर कहते
और खुद कर भी देते

प्रीत यह अभिन्न है
रीत यह अभिन्न है
तुम सा कुछ मुझमेँ
मुझसा ही कुछ तुममें
सच सब अभिन्न है
प्रेम सरिता में बहते
जल की मटकी भरी
कोई कही , कोई कही
पर भिन्न पात्रजल का स्वाद
एक ही है , अभिन्न ही है ।
- तृषित

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