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अहेतु कृपा हेतु अहेतु आत्म विसर्जन हो

अहैतुक कृपा-लाभ करना हो तो अपना आत्मविसर्जन भी अहैतुक होना आवश्यक है । यही महाविश्वास और निर्भरता का रहस्य है । इसके फलस्वरूप क्षणभर के लिये साधक इच्छाहीन होकर उसके बाद भावराज्य में प्रविष्ट होता है । तब भगवत् इच्छा ही अपनी इच्छा के रूप में कार्य करती है ।

इस भाव के राज्य में एकमात्र इच्छा सर्वत्र अनन्त रूप में क्रीड़ा कर रही है । यह इच्छा वस्तुतः किसी की भी इच्छा नहीँ है , यह अनिच्छा की इच्छा या स्वभाव का खेल है ।
यह इच्छा ही मायातीत अभाव है , जिससे अनन्त लीला विलास अनन्त रूपों में प्रकाशित हो रहा है । जब इस अनन्त अभाव का उपशम होगा उसी दिन जीव नित्यलीला के बीच लीलातीत भाव में विश्राम पायेगा । सत्यजीत तृषित ।

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