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☝🏼 प्रेम रसामृत~।।
🔀स्वयं की इंद्रियों को सुख पहुंचाने की इच्छा काम है और प्रेमास्पद को सुख देने वाली प्रीति प्रेम।
काम विष है, और प्रेम अमृत।
काम अग्नि है और प्रेम रस।
मन में कामना आते ही प्रेम का रस सूखने लगता है।
देवर्षि नारद के अनुसार प्रेम गुणरहित, कामना रहित, प्रतिक्षण बढ़ने वाला, कभी न टूटने वाला एवं अनुभव स्वरूप है।
उन्होंने ब्रज-गोपियों के कृष्ण- प्रेम को सर्वोच्च आदर्श माना है।
प्रियतम में दोष होने पर भी सच्चा प्रेम कभी घटता नहीं।
श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती कृत प्रेम-सम्पुट ग्रंथ में कथानक है कि कृष्ण गोपी-वेष धारण कर बरसाने गए और राधा से बोले- नंदलाल गोपियों से बहुत छेड़छाड़ करते हैं।
तुमको तनिक प्रेम नहीं करते।
तब राधा ने कहा- सखी! यह तो उनका गुण है, दोष नहीं।
मुझसे अपने अतिशय प्रेम को छिपाने के लिए ही वे दूसरों से छेड़छाड़ करते हैं।
सांसारिक लोग प्राय: बाहरी रूप-सौंदर्य पर आसक्त होकर स्वार्थ-प्रेरित मोह को ही प्रेम मान लेते हैं।
वैराग्य शतक में महाराज भतर्ृहरि ने कहा- मोह रूपी मदिरा का पान करके संसार मतवाला हो रहा है।
भक्त- प्रवर श्रीरामानुजाचार्यजी ने श्रीरंगम् में धनुर्दास नामक व्यक्ति को अप्रतिम रूप-सौंदर्य पर आसक्त होकर एक वेश्या के आगे-आगे उसकी ओर मुख किए पीछे की ओर उलटा चलते देखा।
उन्होंने उसे आरती के समय मंदिर बुलाया।
भगवान की मनोहर रूप- माधुरी के दर्शन कर वह वेश्या का दैहिक सौंदर्य भूल गया और प्रभु को अपना हृदय दे बैठा।
प्रेम में प्रेमास्पद को प्रेमी के अधीन कर देने की अद्भुत सामर्थ्य है।
तभी तो श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित श्रीगीतगोविंदम् में परमात्मा श्रीकृष्ण प्राण- प्रियतमा श्रीराधा के समक्ष नत-मस्तक होकर काम रूपी विष का दमन करने वाले उनके चरण- कमलों को अपने सिर पर आभूषण की भांति धारण कराने के लिए दीनतापूर्वक याचना करते हैं।
नि:संदेह प्रेम मानव जीवन की अनुपम निधि एवं महानतम उपलब्धि है।
।। आनंद लहर (ज्ञान सरोबर)।।
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