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मोरकुटी युगल लीलारस-22 , संगिनी जु

मोरकुटी युगल लीलारस-22

जय जय श्यामाश्याम  !!
श्यामा श्यामसुंदर जु भावभावित होकर हंस हंसिनी द्वारा गाए जा रहे परम सुखमय पद्दराग आदि सुन रहे हैं।सखियों व श्यामा श्यामसुंदर जु की रूचि देख हंस हंसिनी भी अति उत्साहित हुए आगे गाने लगते हैं।

पहले ही की तरह हंस गाता है श्री राधिके जु के हक में-

"हे प्रियतमे राधिके!तेरी महिमा अनुपम अकथ अनन्त।
युग-युग से गाता मैं अविरत,नहीं कहीं भी पाता अन्त।।
सुधानन्द बरसाता हिय में तेरा मधुर वचन अनमोल।
बिका सदा के लिये मधुर दृग-कमल कुटिल भ्रकुटी के मोल।। 
जपता तेरा नाम मधुर अनुपम मुरली में नित्य ललाम।
नित अतृप्त नयनों से तेरा रूप देखता अति अभिराम।। 
कहीं न मिला प्रेम शुचि ऐसा,कहीं न पूरी मन की आश।
एक तुझी को पाया मैंने,जिसने किया पूर्ण अभिलाष।।
नित्य तृप्त,निष्काम नित्य में मधुर अतृप्ति मधुरतम काम।
तेरे दिव्य प्रेम का है यह जादूभरा मधुर परिणाम।।"

यह सुन हंसिनी हंस से नयन मिला कर फिर झुकाती है और प्रियतम श्यामसुंदर जु की तरफ से गाना आरम्भ करती है-

"माधव!मन नहिँ मानत बोध।
हौँ समुझाइ थक्यौ,दौरत नित प्रतिपल तजि अवरोध।।
रूप-अमिय-रस-पान करन कौँ अतिसय हिय उल्लास।
होत न कबहुँ निरास,सतत संलग्न परम बिस्वास।। 
तूम्हरी सुनत,सुनावत अपनी,तज मरजादा लाज।
रहत सदा अनुराग्यौ संतत तुम सन नागर राज।। 
भूल्यौ अग जग कौ प्रपंच सब,भूल्यौ तन-धन-मान।
एक तुम्हारे चरन-कमल में अरपन कीन्हेँ प्रान।।
भुक्ति-भक्ति,अनुरक्ति-मुक्ति सब बिसरी,रही न एक।
गति-मति-रति नित पद-पदमनि महँ रही यहै बस टेक।।"

        अति सुंदर भाई जी लिखित पद गाते हंस हंसिनी भी उन्मादित होते जा रहे हैं और स्वयं को भावभावित हो रोक पाना असम्भव सा हो गया है।पहले गोपीराधे जु के तत्सुख प्रेम पर गा कर जैसे ही हंस संगिनी ने श्यामसुंदर जु के लिए पद गाया तो हंस ने श्यामा जु के लिए और इस तरह आगे आगे स्वतः ही परस्पर पद उनके मुख से संवरित हो रसरूप बहने लगे।

      आगे हंस गाता है-

"मन्मथ-मन्मथ मन मथत जाकेँ सुषमित अंग। 
मुख-पंकज-मकरंद नित पियत स्याम-दृग-भृंग।।
जाके अंग-सुगंध कौँ नित नासा ललचात।
तन चाहत नित परसिबौ जाकौ मधुमय गात।।
मधु-रसमयि बचनावली सुनिबे कौँ नित कान।
हरि के लालाइत रहत,तजि गुरूता कौ भान।। 
जाके मधुर प्रसाद कौ मधु रस चाखन हेतु।
हरि-रसना अकुलात अति तजि दुस्त्यज श्रुति-सेतु।।
जाकी नख-दुति लखि लजत कोटि-कोटि रबि चंद।
बंदौँ तेहि राधा-चरन-पंकज सुचि सुखकंद।।"

      जैसे ही हंस यह पद पूर्ण करता है श्यामा जु श्यामसुंदर जु को देख लजा जातीं हैं और आँचल में मुख छुपा श्यामसुंदर जु के प्रेमुद्गार सुन जैसे गहन भावों से भर नयन भर लेतीं हैं और यही विदशा हंसिनी की वहाँ यमुना जु में हो रही है और वह गा उठती है-

"प्यारे मोहन मनभावन!मिलन-संताप-नसावन|
सब कुछ करने को पावन,तुम मेरे मन में आओ||
यह नित्य तुम्हारा घर है,इसमें न कहीं कुछ पर है|
यह तुम पर ही निर्भर है,तुम स्वयं इसे अपनाओ||
तुम हटो न इससे पलभर,खेलो तुम इसमें खुलकर|
नाचो-गाओ घुल-मिलकर,इसको रस-धाम बनाओ|| 
जब सारी वस्तु तुम्हारी,मैं भी न कभी कुछ न्यारी|
क्या करूँ पृथक् तैयारी,यह तुम ही मुझे बताओ||
तुम मेरे तन-मन-धन हो,तुम मेरे शुचि जीवन हो|
तुम मेरे प्राण-पवन हो,इसको अब नहीं छिपाओ||
तुम'मैं-मेरे'—के मेरे,क्यों रहते छिपे अनेरे ?
निज परमानन्द बिखेरे तुम नित्य रूप प्रकटाओ।।"

        हंसिनी के मुख से यह सुंदर पद सुन श्यामसुंदर जु श्यामा जु का हाथ पकड़ स्वयं अपने हाथ उनके कंठ में डाल देते हैं।गलबहियाँ डाले प्रियाप्रियतम एक एक हाथ से झूले की रेशमी डोर को पकड़ प्रेम रस में डूबे परस्पर आलिंगित से हैं।श्यामा जु की नज़र झुकी है और श्यामसुंदर अपनी प्रिया की रूपमाधुरी का नयन भर भर रसपान कर रहे हैं।

     बलिहार  !!अपनी चिरसंगिनी श्यामा जु को मंद गति से झूला झुलाते श्यामसुंदर जु अति मनमोहक लग रहे हैं।पूर्ण रसरूप पर ऐसे प्यासे कि जैसे कभी ना मिले।अद्भुत भावप्रवाह रसिक हृदय में उतर चढ़ रहा और हंस हंसिनी के मुख से अति सुंदर पदगान।सच !!ऐसा समय बंधा है निकुंज में कि लफ्ज़ भी स्पंदित हुए और कलम पकड़े दो कर भी कंपित।
क्रमशः

जय जय युगल !!
जय जय युगलरस विपिन वृंदावन  !!

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