*तृषा किसकी*
एक एक वेणु रव जो उतर रहा भीतर, हृदय की गहराइयों में , आह्लाद प्रकट करता हुआ। आह !! यह कौन पुकार रहा मोहे। यह रस और आनन्द की यह लहरियाँ, कौन हो तुम ? भीतर घुल से रहे हो न। तुम्हारे अधरों से झरती हुई यह अधर सुधा के स्पर्श , जो मेरे हृदय को आह्लादित कर रहे। साँचो कहूँ , तृषित कर रहे मोहे। जितनो या रस भीतर उतर रह्यौ एक एक वेणु वेणु रव सों , उतनी ही तृषा भीतर उदित हो रही। आह प्रियतम !! यह तृषा बढ़ती ही जा रही है, एक एक वेणु रव इसे नव नव वर्धित कर रह्यौ। प्रियतम इस आह्लाद में छिपी यह सब रस लालसाएँ किसकी?यह रस चेष्ठाएं किसकी? साँचो जानू ही नाय। यह *तृषा किसकी* । किसकी है यह तृषा। रसराज रसिकशेखर , जो रस के अथाह समुद्र , क्या वह भी तृषित हो सके ? साँचो कहूँ कछु जानू ही नाय।एक एक रव से यह वेणु नाद भीतर क्या तृषा जगावे। अपनी तृषा होय तो कछु कहूँ। मोय लागे तृषित प्रियतम ,या रसराज की रस तृषा कु ही जगावै यह वेणु नाद। हिय ते घुल घुल तृषा ही बाढ़े। कहीं तृषा बाढ़े पीवन की तो कहीं तृषा जगावै पिलावन की।एक एक वेणु रव सों , आह !! रसराज प्रियतम की रस तृषा का वर्धन और रस वर्षण । कौन को शब्द रहे कछु कहन कु। बस घुलते घुलते पीते पिलाते याहि सँग , याकि ही रस तृषा होय जाऊँ। सुनूँ प्यारे तृषित हृदय की रस लालसा और चाहूँ याहि लालसा ही होय जाऊँ........मूक, अतृप्त
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