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सखी ले चल परली पार , संगीनि जु

*सखी ले चल परली पार......*

जहाँ दीप सम सूर्य उगता हो और चंद्र नखप्रभा से कणमात्र झरता हो...
हाँ सखी एक ऐसी प्रेम स्थली जहाँ एक सुहागिन देह का सिंगार रज से कर रही...कंगन चूड़ी हार सोहल सिंगार सब रजरानी से कर माँग भर रही और पैरों की पायजेब से करबद्ध किंकनियों पर और कटिबद्ध से चूड़ामणि तक...सगरा सिंगार रजरानी कृपा से सुघड़ सलोना प्रियतम संग आनंदसिक्त सिहरन लिए नेत्रों में रज का अंजन लगा लावण्यमयी श्यामलता को निहार रही...जो इतनी गौर है कि श्यामवर्ण कालिमा धारण किए अंजनयुक्त नेत्र ही इस अपार सौंदर्य को निहारने का सौभाग्य दिला सकता...खुद में सामर्थ्य नहीं...कृपा का पथ यह जहाँ तरु पल्लव भी रससने रंगीले राग अनुराग में लीलायत घनीभूत प्रेम की पराकाष्ठा सम पुष्प खिलाते।
सखी...लीलास्थली जहाँ नीला आवरण ओढ़े पीतधरा नित नव सुसज्जित लज्जाशीलता से प्रियतम को रिझाकर सुख पा रही और प्रियतम हेतु प्रियतम करकमलों से ही सज धज रही...अहा !
सखी...ये जो लताएँ बेल बल्लरियाँ हैं न इस प्रेम सिज्या की ये प्राकृतिक नहीं अपितु सरस सिंगार हैं सुकोमल भुजाओं का और कहीं सुंदर वेणी सी और ये इन बेल लताओं के तने सखी...जैसे मौन शांत रस में विलीन भक्तगण...आभूषण बन सुसज्जित हैं...कहीं मुकुट तो कहीं बाजुबंध...
सखी...ये जो किन मिन रूनझुन पायल व करधनी हैं जो सखा स्वरूप मंद मंद घूँघर घूँघर अट्ठकेलियाँ करते ये सब जैसे मयूर हँस किन्नर डोल रहे...ये सब इस पीतधरा का निराला सिंगार करते...चूड़ी कंकनों की खनक मंद संगीत सा धरा पर बहता अति रसीली तान से...ये जैसे सब वाद्य रीझ रीझ कर रिझा रहे प्रियतम को...सखी जैसे ही प्रियतम इन सुंदर वल्लरियों पर तान की थिरकन सा संगीत सुन डूबते तो एक एक रोम पुष्प बन खिल जाता जिन पर भ्रमर सम प्रियतम की निगाहें अटक जातीं और एक एक रोम पुट से खिले यह कमलदल पराग झरझराते प्रियतम की श्वासों में घुलने लगते तब स्वर्णिम देह अति सुकोमलतम होकर प्रिय को आकर्षित करती जैसे संध्या का सूर्य धरा को चूमने के लिए घिर आ रहा हो...कृष्काय कटि की...और चरणकमलों की रसस्कित ठसकीली चाल ढाल जैसे नदियों का अंगड़ाईयाँ लेना और मचलना बहना जिन्हें अपने में भर लेने के लिए महासागर स्वतः उमड़ आता...
सखी अति सरसीली नवेली ये नीले आसमान से झरती लालिमा जो पीत से मिल स्वर्णिम भी...ये जैसे ललाट पर लाल बिंदिया...करों की मेहंदी...चरणतलों की जावक का लालित्य चुरा कर स्वयं में भर रही...बिम्बफल से अधर लालसुर्ख लाल कंचुकी जैसे अतिरस में स्वर्णिम धरा पर लाल कमलदल वक्षोजों का श्रृंगार नवीन कर रहे जो रात्रि में अधिक सुरम्य हो छलछलाने लगते...
सखी...ये मधुर मृदुल वाणियाँ जो हिरणी सम हर लेतीं श्यामल घनों को...ये पीहु पीहु...कोकिल की कूहु कूहु...मयूरी की रसीली पुकार और हंसिनी की सुघर मधुर सुवासित झंकार...अहा...मन हर लेतीं जो अनारसम दंतावलियों से झर जातीं और असीम असीम रस सुधा बहातीं...
सखी...यह डबडबाए से नयना जैसे भृकुटनियों के कटाक्ष जो झेलते यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ टकटकी लगाए इतराते फहराते नन्हे खंजन सम रस की श्वासों से भीगे भीने उड़ते रहते...
सखी...ये जो हरितिमा हरियाली फुलवारियाँ देख रही ना जो खिल आ रहीं ये जैसे रसीली महक से उचक कर श्रृंख्लाओं सी खेंच रहीं वेणुवादन करते श्यामवर्ण नीलगगन को जो रात्रि की कालिमा सा गहराता जा रहा प्रतिपल और नव नव नव सजती जाती धरा पर हरियारी चूनर को लहरा रहीं...
इस चूनर को लहलहाती यह श्यामल गगन को हिय में समेट लेना चाहती जैसे और यही तो होता...गहरी रात्रि की आवन जैसे भर लेती नीलिमा को भीतर सहेज लेती और स्वयं की गौरता को भी बिसरा कर श्यामल श्यामल हो जाती एक नवीन रस संचार हेतु...एक नव सिंगार हेतु...
सखी...यह नवीन की ओस की बूँदें निरख रही ना...ये श्रमकण झर झर हरियारी पत्तियों को चूनर पर ओस सी सज कर नव विलास हेतु नव नव नव रस लावण्य छिटका रहीं...
सखी...कब रजरानी की कृपा से ऐसी परली पार के अपरम्पार प्रेम को निहार रजअणु रसवल्लरी से झरती इस ओस बूँद से भीगी नव सींचन की पारखी बन सकूँगी...कब जटिल कुटिल बूहारन से बुहारी जाऊंगी और ऐसी प्रेम रसीली रसधरा का सुरीला साज बन...सिंगार वस्तु बन...कभी तो मुंदते नयनकोरों से भीगी भीनी रसझीनि एक रसझाँकी तो पा जाऊँगी...
आखिर कब... ... ...

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