"दूलहु दुलहिनि दिन दुलराऊँ।
कुमकुम मुख माँडों मँड़वातर नवल निकुंज बसाऊँ।।
बिबिध बरन गुहि सुरंग सेहरे रसिकनि सीस बँधाऊँ।
कोमल पीठ दीठि करि ईठनि डीठि मिलै बैठाऊँ।।
पानि परसि हँसि बचननि रुचि अंचल चंचलहिं गहाऊँ।
*परम नरम रस रीति प्रिया जू की प्रीति निरंतर गाऊँ।।*
उत्कंठित जाचित जुवतिन हित केलि बेलि बरषाऊँ।
श्रीबिहिरिनिदासि हरिदासी के संग देखि दुहुँनि सचु पाऊँ।।"
हा श्यामा हा राधिका श्यामसुंदर हियप्रकाशिनी प्यारी जू अह्लादिनि...ह् किशोरी... ... ...
सखी...अनंत उपमाएँ...अहा...पर सब अधूरी सी...क्या कर कैसे निहारूं...कैसे खोजते खोजते पा जाऊँ...डूब जाऊँ उन करुणानिधि उदार विनीत रसशिरोमनि की अति तत्सुखमयी भावलहरियों में जो संगीत संग महकती भी हैं तो अनंत अनंत मधुर रसस्कित अधरों पर रागिनियाँ और हियकंवलों से मकरंद स्वतः झरने लगता है री...अहा !!
री सखी...ममतामयी शिशुअधरसुधा विलासिनी विनीत माँ के स्तनों का स्पंदन ही जानता है कि शिशु को कब कितनी क्षुधा है...हाँ सखी री...नेह भरा हृदय ही जानें कि अधरों को कितनी प्यास है...और सखी ये दामिनी जो प्रेमपगी कौंध उठती है अह्लाद से यही जानें कि घन में कितना रोमांच हो आया है कि बरसकर उन्मादिनी रसबूँदों से ओस के कणों को छलका कर कमलिनी का श्रृंगार कर सके...
तनिक इन तृषित क्षुधित नैनों की गहराईयों में उतर कर निहारना कि ये अह्लाद जो बिजुरी में भृकुटिविलास बन कौंधता है यही रस बनकर घन की तृषा होकर रोमांच भर कमलिनी का रूप होकर ओस की बूँदों से सजता है...अहा !
सच कहूँ...पिपासित हिय की पिपासा का अनुभव रस को होता है...जो उस प्यास की गहनतम गहराईयों से खारे जल की बूँद तक को रसीला करता है सखी...संगरस ही समझे क्षुधित की गहनतम रसतृषा को...अहा... ... ...हमारी प्यारी रंगीली श्यामा जु ही जानें मधुसूदन के मधुपान के सुख को...एक भ्रमर ही जानें कमलिनी में कितना मकरंदरस उस हेतु शेष पसरा है... ... ...
शीतऋतु की मद्धम पड़ती शशिसम शीतल रसरश्मियाँ शिथिल होते होते बसंत बिखेर जाती हैं...अहा...
कैसे...अभी अभी तो इसी शीतलता में नेहप्रसून खिले उभरे झकझोरे मथे हुए से सिकुड़ सिमट रहे थे...अभी तो उस रसीले मंथन के निशां रतिचिन्हों से सजे थे इन प्रसूनों पर...अहा...
अभी अभी तो सर्द पवन से सिहर सिहर कर रस रस में घुलमिल हिलमिल रहा था...जैसे अभी ही तो शीतलहरियों की सिहरन से दो हृदयकंवल एक दूसरे में समाए थे सखी री...
आह...दर्पन ही जानें नेत्रों से निहार कि हृदय में कितनी रिक्तता भरी समाई है...
एक एक रोम सिहर सिहर कर मौन रसीली गहनतम रसतरंगों की रसीली पिपासित छुअन से नवरंग में हरा भरा खिल उठा है जैसे...जैसे...ये बसंत सखी री... ... ...
उस निचोल नीलमणि सी आभा लिए विनिता की रसदेह की चमक...आह...पीत कुमोद सजीली सहजता की राशि पर जैसे अनंत कुमुद खिल उठे हों जिन्हें निहारते दो नीलाभ नयन सजल हो उठे जैसे इन कुमुदों की महक ने खींच लिया हो इन्हें उस कुमुद के मकरंद पर लगी क्षुधित रसीली छाप ने...
सखी...किंचित इन भावों की गहराईयों में भी गहनतम उन रतिचिन्हों का अनुमोदन तो कर जिन्हें निहारते दो सजल नेत्र हियवासित क्षुधित अधरों की रसक्षुधा से महके भीने मकरंद संग उड़ चली वहाँ जहाँ प्रियतम प्रेमसेज पर मसले मथे पुष्पों में उसी महक के लिए भ्रमर सम लिपटे सिमटे पड़े बाट जोह रहे हैं प्रियतमा की...अहा...
इन कुमुदों के नवरंग में डूबी ये निगाहें ही जानें इनके स्पंदन में कितनी करुन पिपासित सी पुकार है जो अतृप्त पड़ी है और...और...अत्यधिक गहरा जाने को...उन अतृप्त अधरों को कुमुदों में अनवरत भिगोने की रसीली रस सफ्फुरन करातीं...अनुभूत करातीं उनकी प्यास को...आह... ... ...
देह नेह से विस्मृत विनीत प्यारी जू के हृदय की क्षुधित पुकार उन्हें समस्त सेवारत सखियों व हार श्रृंगार की अनंतनाग चंदन केसर उबटनयुक्त महकती कुमकुम हिना की महक से सनी रस रंगीनीयों से भी खींच कर परस्तर उन्हें श्यामसुंदर के समीप ले जातीं हैं जहाँ बसंत पर खिले इन नेहप्रसून कुमुदों का पान करते अनंत अनंत रोमपुट अधर हुए परस्पर सिहरन स्पंदन में डूब उतर कर शीतल पड़ी नेहलताओं पर बसंती गुल खिला रही हैं... ... ...अहा...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!
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