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विदग्धमाधवे प्यारी 1 , संगिनी जू

*विदग्धमाधवे*

"गुन की बात राधे तेरे आगे को जानैं जो जान सो कछु उनहारि।
नृत्य गीत ताल भदेनि के विभदे जानें कहूँ जिते किते देखे झारि।।
तत्व सुद्ध स्वरूप रेख परमान जे विज्ञ सुघर ते पचे भारि।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी नैंक तुम्हारी प्रकृति के अगं अगं और गुनी परे हारि।।"
अतिरस निपुणा कौशला श्यामा जु रतिनेह से सम्पूर्णतः रचीपची अनंत गुणों की स्वामिनी व सुशीला करूणाशीला हैं...प्राणप्रियतम की हियमणि...संजीवनी...प्राणपोषिणी...प्रियतम के निश्चल प्रेम में पगी सर्वरसों से परे अतीव रसाधिष्ठातरी हैं जो सर्वगुणों को धारण ही करतीं हैं प्रियतम सुख हेतु...अहा...
सखी री...सौंदर्य की अभूतपूर्व सुखराशि श्रीश्यामा जू प्रियतम व सखियों को अपने अनंत गुणों से...गुणवत्ता से चिरकाल से चिरकाल तक मोहित किए रहतीं हैं...विदग्धा श्रीश्यामा जू पति रति मन हरिनी रासविलासिनी हैं जिन्होंने प्रेमावेश में नील निचोल धारण कर रखा है...वे प्यारी सुकुमारी वृष्भानू दुलारी अपनी चारु चन्द्रिका के रस में प्रियतम को सदा भिगोए हुए रहती हैं...प्रियतम श्यामसुंदर ही उनके ललाट पर मुकुट सम विराजित रहते हैं और वही प्यारी जू के अंग प्रत्यंगों की रूपमाधुरी में छके हुए उनकी नखप्रभा को हिय में समेटे हुए प्यारी के गुणरत्ने बने अनवट सम सुशोभित होते हैं...
अनंत गुणों की एक घनीभूत रससार रसशिरोमनि प्यारी श्रीश्यामा जू प्रतिक्षण प्रियतम सुखरूप नवीनतम गहनतम लीलाओं का सखीगण संग गोपनीयता से विस्तार कर प्रियतम को कभी चकित तो कभी द्रवित करतीं हैं कि प्राणप्रिय की प्रीति ही इनकी सर्वसम्मति सर्वोपरि सम्पत्ति है जिस हेतु ये नव नव केलिविलासों में रमी प्रियहिय में सुखासीन रहतीं उन्हें रमातीं हैं...
नित नव सुधारस का पान कराने हेतु ही प्यारी जु विदग्धा हुईं प्रियतम से गलबहियाँ डाले वन बिहार करतीं हैं...प्राणप्रियतम जब प्यारी जू की विदग्ध विचित्र रसाट्ठकेलियों में निमज्जन करते हैं तो प्यारी की विचलित फलतुल्यपयोधरी प्रियतम हियमणि में झाँकती कमनीय हो उठती है और प्यारी प्रियतम को नरम सुघड़ हिंडोरणे में अतिनेह से रस पिरो कर झुलाने ढुलाने लगतीं हैं...प्यारी की इस प्यारी प्रियतम सुखहेतु चंचल चितवन से प्रियतम गाढ़ रसतरंगों में बहते बहते अति तीव्र व्याकुल हुए प्रियतमे को निहारने लगते हैं कि नयनों से नयन व हिय से हिय उरझे रह जाते हैं...श्यामा जू तनिक रसानुभूति में प्रियतम को प्रगाढ़तावश गहनालिंगन में भर लेतीं हैं और विदग्धमाधवे प्रियतम हेतु संजोये सम्पूर्ण रस सम्पत्ति को पियहिय में उंडेल देती हैं...अहा...
श्यामसुंदर विदग्धा सुकोमला मखमली तनसुखी प्यारी राधिका जू के ललाट से अधर...अधर से कंठ...कंठ से हिय...हिय से उदर...और उदर से नाभिसर में मीन हुए से अति विकल व्याकुल प्यारी को निहार रहे हैं कि प्यारी प्रियतम की अपार तृषा का दमन स्वयं दामिनी होकर करतीं हैं...प्राणप्यारी विदग्धमाधवे श्रीश्यामा स्वयं प्रियतम की रसपिपासा को सुख पहुँचाने हेतु क्षुधित रससिन्धु बन ठसकती लचकती नितम्बिनी प्राणपोषिता हो उठती हैं और सर्वरूपेण प्रतिरोम से प्रिययम को सुख प्रदान करती हैं...
प्यारी जू के रस के बाँध जैसे टूट रहे ऐसे प्रियतम श्यामसुंदर जु को रसाश्रृंगार धराने में समव्याकुला हुईं क्रीड़ाएँ कर बिहाररत हो रही हैं...प्यारी जु के अधर नि:शब्द हुए प्रियतम हिय से ही पुकार उठते हैं...विदग्ध...रमण...रमण...विदग्ध...आह... ... ...परस्पर सुखरूप दोऊ फूलनि सम फूलनि की रसझारियों में  स्वतः डूबते छुपते जा रहे...उनके प्रेमनाद की संगीतमय लहरियाँ मौन होकर सुषुप्त हो रहीं पर नवयौवना का उन्माद अह्लाद प्रियतम हेतु मदनहिंडोरे को तीव्रातितीव्र गतिशील करता जा रहा... ... ...
प्राणप्रियतमा विदग्धा श्रीश्यामा जू सुरत सिन्धू की पतवार सम्भाले हैं और प्राणप्रियतम इस पतवार के बल पर ही अति गहन प्रेम गोते लगा रहे हैं कि उनकी क्षुधा प्यारी रसीली रंगीली जू की रसझारियों में उलझ कर गहराती जाती है...
मदनरंग में डूबती उतरती विदग्ध रससिन्धु रसस्वामिनी श्रीश्यामा जू रंग रसविलास में मनमथ मनमथ प्रियतम को सुख प्रदान कर रही हैं और प्रियतम प्यारी से माला में ज्यौं फूलनियों के मध्य धागे की तरह पिरोये हुए रसमर्दन मंथन में भींजे प्राणप्यारी से सर्वरूप अंगपोषण पा रहे हैं... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

(( विदग्धता होती आंतरिक दग्धता । प्रति रोम आंतरिक दाह । कैसा दाह प्रियतम सुख पोषणार्थ जो अभिलाषा अपने प्राणों के सुख के लिये उससे उठती यह दाह । इससे मुक्त नहीं हो सकती वह , बढ़ती रहती यह पीड़ा । क्योंकि मनहर की प्रिया का प्रेम सर्वोत्तम अद्भुत मूल सँजीवनि है । यही सँजीवनि विदग्ध होती माधव के मधुत्व की नित नव अनुराग  नव केलि लालसा में । सुख देना कभी पूर्ण होता नहीं और यह झरना जहाँ से बहता वह आंतरिक सन्ताप और लालसा करता सो दग्ध हो वह उस दग्ध से प्राप्त प्रियतम सुख में खो कर उसी नित दाह को भूले रहती विदग्ध माधवे ।  ...माधव रूपी पुष्प के सन्तोष को खोजती यह विदग्धे ।
विदग्धता की दात्री भी वही । मनहर प्रियतम को विदग्धता मिलती कहाँ से । स्वयं विदग्ध , विदग्ध रस दान करती निज प्रियतम को रसिकशेखर करने की घनिभूत विदग्धा ।
प्रियतम की विदग्धता बढ़ती क्योंकि प्राणदायिनी प्राणपोषण को विदग्ध । इस लीला में मनहर की विदग्धता मिटाने को वह स्वयं करुणा दात्री पान कर लेती मोहन के सम्पूर्ण श्रीअंगो का विदग्धत्व
प्रियतम को विदग्ध रति सहज देकर वही विदग्धता पी लेना प्रियतम को रसभुत कर देता परन्तु यह आह्लादिके नित विद्गधे है ।))

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