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प्रीतवर्षण चातकी , संगिनी जू

"प्यारी जू तेरी आँखिन में हौं अपनपौ देखत हौं ऐसे तुम देखति हौ किधौं नाहीं।
हौं तोसौं कहौं प्यारे आँखि मूँदि रहौं तौ लाल निकसि कहाँ जाहीं।।
मोकौं निकसिवे कौं ठौर बतावौ साँची कहौ बलि जाऊँ लागौं पाँहीं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा तुमहिं देख्यौ चाहत और सुख लागत काहीं।।"
आँखमिचोली कौ खेल तो जानौ हो ना सखी...अहा...खूब खेली होवैगी ना...नयन पर काली पट्टी बाँधे सब सखिन के छुप जावै के तांई और फिर पट्टी खोल कर सबको तलाशने में खुद को भूल जानो परै है...है ना...पर जे खेल तू कबहूँ अपने से ना खेली री...
हाँ...स्वै से ना खेली ना...नयन मूँद स्वयं से जे खेल खेलनो अद्भुत होवे री...अहा !!
विनीतहृदया विनीता श्रीश्यामा जु कब तें निहार रहीं चित्तचोर श्यामसुंदर कू कि सन्मुख बैठे बंसी बजाए रहे...अधर धर...नयन मूँद कर...मुग्ध...जाने खुद को खोए रहै जां पाए रहै पर तनिक दृष्टि मुरली पर परि तो मृदु अधर सुधा से हो रहे रसपान पर प्यारी कौ हियकंवल खिल उठह्यौ...हाय...नयन मुँद गए री...प्यारी के चंचल अनियारे नयन...मुँदे मुँदे अंतर्मुखी हुए तो जानै है सखी री...बहिर्मुख आँखमिचोली कौ खेल तो विस्मृत है गयौ और अंतर्मन में मुरली हो आईं भोरि किशोरी जू साँवरे सलोने के लाल सुरख अधरों पर सजी सजीली हठीली फरकीली मुरलिका...अहा... ... ...
...लाल सुरख रसीले लाल के अधरों का ये गौर सुनहरी मुरलिका का श्रृंगार...
प्यारी के कजरारे नुकीले मुँदे नयनों का श्यामल श्यामल कोमल नयनमुँदनी पट्टिका का लाल श्रृंगार...
बासंतिक गुल खिल आए री...रसीले नयनों में रसलोलुप बदरा घिर आए...
अतिरस के गहरे रंग हिलमिल घुलमिल रहे...रसजड़ वस्त्रालंकारों ने भी प्रेम में बगावत कर रसलिप्त रण छोड़ दिए...रणछोड़दास की रसीली दास्तां में...
जैसे...जैसे प्रतिबिम्ब निहारते निहारते सजल नेत्र मुँद गए हों स्वरसपान की अधिकता से और फिर सांचो खेल आँखमिचोली कौ आरम्भ भयौ...प्यारे ने नयन मूँदे ताकि प्यारी को हिय में भींज कर निहार सकें और सुनाने लगे हिय की सगरी रसतान बँधानें जो मल्हार में तन्मय हुईं तो स्वतः प्यारी के नेत्र मुँद गए और उन तान बँधानों में मल्हार राग की रसीली सुरतांत लहरों में पूर्णतः भीगा रसअंचल उनका...अहा... ... ...
बहिर्मुख तो श्यामसुंदर की अत्यंत गतिविधियाँ प्यारी के हिय को धीर अधीर कर रही थीं पर अंतर्मुखी विनीत नेत्र मुँदे तो बाह्य सब दृष्य अंतर में उतर कर गहराने लगा...प्रतिलोम मुरलिका का अधरसुधा रस में भीग रहा...प्रतिअधर की अति सुकोमल छुअन से प्रतिराग गहराने लगे...
"परस्पर राग जम्यौ समेत किन्नरी मृदंग सुर तार।
तीन हूँ सुरनि के तान बंधान धुरी धुरपद अपार।।
विरस लेत धीरज न रह्यौ तिरप लाग डाट सुर मोरनि सार।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा जे जे अंग अंग की गति लेत अति निपुन अंग अंग अहार।।"
अहा...प्यारे श्यामसुंदर की वंशी के गहराते नाद और उधर नयन भींजे प्यारी की किलकलाती मधुर रागनियाँ...श्रमजल कन सज रहे द्वै तन एक प्रान तें...जैसे स्वप्न संगम गहराया और नयन मूँदे मूँदे लाल अधरों का अहार हो आए हों...
सखी री...श्यामा जु के प्रति आभूषन प्रतिपुहुप सिंगार जैसे प्यारे के अधर हों और नयन मीचे प्यारी को ये सब आभूषण सिंगार लाल के अधरों के चिन्ह ही भास रहे...प्रतिक्षण प्रत्येक आभूषण पुष्प झर रहा प्यारे के अधरों से और नयनों से ओझल होती जा रही स्वानुभूति जैसे अर्धनारेश्वर स्वरूप में बँधे द्वैतन द्वैत को विस्मृत कर रस की अतीव अगोचर अद्वैत गहराईयों में उतर रहे...और परस्पर का नहीं अपितु स्व का मधुर मृदु स्पर्श ही मुँदे नयनों के पथ पर श्रृंगारित हो रहा...रसपान कर रहा...विनीत श्यामा जू के सजल नयन क्षुधित अधरों की क्षुधा की भी तृषा हो उठे और निहारते निहारते पिपासित अधर सम पिपासित नेत्र मिलित हो रहे...हा हा आह आह...सर्व रसशब्दध्वनियाँ अधरों की मौन रसलहरियों में चुप्पी धार गईं...बस निहार रहे ये दो अर्धमुँदे दो नैन चकोरवत् चहुँ ओर चाँदनी बिखेरते पीत हो रहे लाल चंद्र के लाल अधरों को... ... ...
नयन खुले तो वंशी और विनीतहृदया के अनंतनाग राग विलीन हो गए प्यारे के नयनों में और प्यारे की वंशी जैसे स्वप्न संगम की शुद्ध सत्य संगम हो आया...अहा... ... ...
" गौर स्याम मंजुल मृदुल,अद्भुत तन की कांति।
अधर सुधा रस वारुनी,पियत लहैं सुख सांति।।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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