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रम्यवाक उज्ज्वलश्रीप्रियाजु 2 , संगिनी जु

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"रम्यवाक्"भाग-2
  हा...प्रियतम...आह...प्यारि...
यही रसध्वनियाँ सुनाई आतीं...पल प्रतिपल गहराती जातीं...थमती कभी रूकती...कभी अत्यधिक रसीली...तो कभी रसछकी सी मौन भी हो जातीं...अहा... ... ...
तत्क्षण मौन...मुंदे नयनों की नयनाभिराम झाँकी में केवल कर्णरस घोलती ये रसध्वनि हियकंवल खिला जातीं...सखी री...नेत्र बंद कर मौन हो अंतरंग हियकंवल पर खिलती चिटकती मकरंद कलियों पर पुष्पों की मसलन व सिहरन की नित नवेली रसीली ध्वनियों के मध्यस्थ उठती एक मधुर रसवाणी...जो प्रियतम के हिय का ऐसा रसीला राग है जिसे सुन वे रसमगे मधुपगे अनवरत पुकारते रहते हैं...हा प्यारि...कोमलांगि मधुवाणी रस शिरोमणि प्यारि किंचित विलम्ब कर बड़े श्रम से जब उस हिय से उठती प्यारे की पुकार का अक्षरमाधुर्य से सना...कोकिल को भी मौन कर देने वाला मात्र संकेत भर देतीं हैं तो प्रियतम जैसे अति प्रगाढ़तम प्रीति में डूबते डूबते फिर उभर आते हैं...अहा...प्यारी जु की मधुर मधुर वाणी...प्रियतम की गहनतम रसश्वासों का मधुर संगीत हों जैसे जिसे श्रवण करते प्रियतम नित्य नूतन होते रहते हैं...
सखी री...बालपन में यहाँ वहाँ मनमोहक किलकारियों के बीच बीच जब शिशु अपनी माँ को पुकार उठता है तो माँ भी कहीं भी हो...उस रसभरी शिशु की वाणी का उत्तर अति मधुर रसीली वाणी से ही देती ना...और...और...पिपासित हरित धरा पर कभी मेघ की किंचित पहली ही बूँद की गिरती थिरकती रसीली धमनी को सुनी हो कभी...और जलतरंगों संग बहती वो नन्ही सी मीन...अहा...!सखी जैसे जीवनप्रदायिनी ये प्यारी रसध्वनियाँ...और भी रसप्रदायिनी हो जातीं जब भोर की पहली ही किरण संग एक चहकती सुनहरी नीलकंठधारिणी खंजन चिड़िया नीले अंबर पर सजल निश्चल गुनगुनाती सी उड़ उसे छू आई हो...अहा...मधुरिम संगीतमय रसध्वनियाँ...
"ऐसी रितु सदा सर्वदा जो रहै बोलत मोरनि"
सखी...नीलगगन में घन की आवन पर मयूरी पुकार करती है ना...और मयूर इस मधुरिम पुकार पर नृत्य करता अपने रंगीले पंखों को छतरी सम फैला कर नृत्यंत मयूरी को आगोश में धारण कर लेता है...अहा !रस की बूँदन से श्रमजलबिन्दु झर आते हरित रस सरसीली रंगीली धरा पर...
सखी...जैसे साँवल प्रिय की वेणु माधुरी की किंचित सी तान गोपियों के विरह दावानल में जल रहे हियकुचमंडलों को मरूथल से कंवल मकरंद रसझरित कर देती है...ऐसे ही सखी री...ये अति प्यारि जु की मधुर रसीली रसबोली सुन प्रियतम श्यामसुंदर जैसे प्रगाढ़ रसतरंगों में डूबते उतरते कूजने लगते हैं...
"कूजत केलि कलोल हँसि मृदु मीठे बोल बोलैं खोलैं छंद बंद करि मनुहारी"
और प्रिया जु की मीठी बोलिनि पर बलिहारी सखिन संग उनका मानहरन कर प्रेमरस की मुखरित सुरखित तरंगों में बहने लगते हैं...हा हा पिय की पुकार मयूर मयूरी को रसमग्न कर कोकिल के मधुर गान के श्रवनन में डूबने लगते हैं...जिन प्यारि जु की नूपुर की थिरकन पर निकुंज उपवन मौन हो जाते हैं उन अति मधुर रम्यवाक् रसीली किशोरी जु की एक रसभरी तान पर श्यामसुंदर थिरक उठते हैं...अहा...
"यौं हँसि हँसि कहत हैं बात;सुनि तिन बातनि हूं न पत्यात।
कोमल करनि सौं मुख मूँदि राखत श्रवननि तन जात।।
वचन रचन बनत नाहिंन पुलकित सब गात।
श्री बिहारिनिदासि के नैननि में सुख सैननि लटपटात।।"
जैसे जैसे प्यारि जु मृदु बोलनि से पिय हिय में उतरती हैं तैसे तैसे प्रियतम भृंग सम प्यारि जु के मकरंद रस झरते अधरों पर मुस्काते नयनों की अनुमति पाते मंडराने लगते हैं...तब तो जैसे चकोर को रसीली चकोरी की रसीली बानी का राग भाने लगे और बातनि बात समझ समझ बतियाने लगे और गहराते गहराते ऐसे गहराने लगे प्रियतम कि क्या कहूँ री...बस इतना ही कि सखीगण प्यारे की चोंप ते और प्यारि जु की रसीली मधुर वाणी की हियकंवल पर मधुरिम बाण मनमोद पर बलिहारी जातीं नयनन सुख ते सुहाती ना अघाती...
हाय !प्यारि की प्यारि रसवाणि...रम्यवाक् श्यामा जु के रसश्रवण में अवाक् मदनमना श्यामसुंदर...
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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