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विदग्धमाधवे प्यारी 2, संगिनी जू

"राधे चलि री हरी बोलत कोकिला अलापत सुर देत पंछी राग बन्यौ।
जहाँ मोर काछ बाँधै नृत्य करत मेघ मदृंग बजावत बंधान गन्यौ।।
प्रकृति के कोऊ नाहिं यातें सुरति के उनमान गहि हौं आई मैं जन्यौ।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कुंजबिहारी की अटपटी बानि औरै कहत कछु औरै भन्यौ।।"

"विदग्धमाधवे"
विदग्ध...आखिर कैसे प्राणसंजीवनी प्यारी दुलारी श्यामा जु विकल विदग्ध हो सकतीं हैं जबकि वे तो सदा प्रियहियमणि बन सुसज्जित हैं प्राणप्रियतम के कंठहार की कोस्तुभमणि सम और इससे भी गहन कहूँ तो जैसे अंगराग कस्तूरी का रंग एक हो जाए घुल कर तो भला इन्हें भिन्न कौन कह सकता ना...
अरी भोरि...प्रियहियमणि प्रियतम की प्राणा हैं...नित्य संगिनी...संजीवनी हैं और प्रियतम कबहूं प्यारी के केश तो कभी केशराशि पर सुसज्जित पुष्प आभूषणों पर भ्रमर सम सदैव मंडराते और कभी उनकी ललाटबेंदी पर विराजमान हो उनके प्रकाश को स्वयं में भर लेते तो कभी कपोल और चिबुक का काला तिल बन सज बैठते...प्यारी के नयनों का काजल तो कभी अधरों पर लालित्य सम सुधापान हेतु लालायित होते...मृदुल भाषी प्यारी के मुख से निर्झरित रसीली वाणी की मिसरी सी मिठास स्वयं प्रियतम ही तो हैं और उनके करपल्लवों की मेहंदी उनकी महक से ही महकती...प्यारी जू की कटीली सरसीली भौंह कटाक्षिका प्रियतम की ही चटपटी...उनकी लचीली कटि की अति सुकोमल मरोड़न और चाल का लचीलापन जैसे प्रियतम की ही टेढ़ेपन की ठसक से चहकी सी सदा...प्यारी के चरणों में महकता जावक प्यारे के ही हिय की लालिमा से सींचित सेवित...अहा...रोम रोम प्यारी जू का प्रियतम सिंगार से ही सजा भीगा सा...स्वतः कभी सुघड़ तो कभी सजीला...प्रतिपल प्रियतम प्रियतम की सी पुकार करता उनका अंग अंग...क्या कभी भिन्न वे परस्पर...आह...
"अकथ कथा है प्रेम की,कही जात नहि वैन।
रूपसिन्धु भरलेत है,पल प्यालिन में नैन।।
काठ काटि के घर करै,लखौ नेह की बात।
प्रेम गन्ध में अन्ध है,मधुप कञ्ज बंध जात।।"
सखी...प्राणसुलोचने ही कबहूँ कबहूँ प्राणविदग्धे हो उठतीं...ऐसी अभिन्नता भी कभी कभी उनके संताप...उनका रोग हो जाती री...
सर्वदा मिले हुए समाए हुए भी प्यारी जू स्वेदमणिका हो उठतीं और प्राणपन से प्रियतम को पुकार उठतीं।विदग्धमाधवे प्रिय को अंक में लिए हुए भी इन पुकारों से संतापित हो उठतीं जैसे रोम रोम इनके पास प्रिय की अमानत हो और ये इन्हें प्रिय की सेवा हेतु पूर्णतः उन्हें लौटा देना चाहतीं...
हियप्रसून में मकरंद प्रियतम का भरा प्यारी के...महक पिय की...रससंवाद प्रिय के गूँज उठते स्वतः प्रिया जु के कर्णपुटों में...प्राणपोषिणी पोषित करती प्रियतम के प्राणों को अपने नेहभरे अंग प्रत्यंगों से और खुद से अन्जान प्रियतम को उनका सुख मान उन्हें खुद को ही सौंप देतीं...
"देखि देखि रीझे तोहिं नैन सलौनी मन  मौहे"
प्रियतम श्यामसुंदर प्यारी जू की इस विचित्र दशा पर बलिहारी उनके चरणनखों से शिख तक अनुमोदन करते ना अघाते...उन्हें नयनों से ऐसे रीझे रीझे निहारते कि प्यारी को अपने वस्त्राभूषण...पुहुपालंकार...सौंदर्य लावण्य...माधुर्य सुकोमलता...मृदुलता लालित्य सब प्रियतम के नयनों से प्रतिबिम्बित होता विदग्ध करता कि यह सब देन तो प्रियवर की ही है...मैं खुद ना थी...ना हूँ...चंचलमना...प्रियतम के अतिनेह में पगी सुकोमलांगी प्रियतम की श्यामलता में ही अपनी गौरता को निहार पातीं हैं अन्यथा अपने रूपरंग का बोध ही कहाँ भोरि को...
अरी...काले मेघ की छवि पड़ते ही जैसे चाँदनी बहक कर नीलिमा में नहाई नीली हो उठी और मेघ की श्यामता व दामिनी की गौरता...अहा...दोनों ही नीलवर्ण...क्या कभी कहीं मैं हूँ भी...
ऐसा वैचित्य देख स्वयं प्रियतम भी प्यारी जू की विदग्धमाधवे में ढुरकी रसछवि से विदग्ध हुए उनके रोम रोम का पान करते ना अघाते और प्यारी जू की रस रंगीली रसछबियाँ सखियाँ उन्हें अनंत अनंत गाढ़ रस में भीगते संवरते निरख उन्हें आसीस देतीं रहतीं...
घन दामिनी जैसे दिखते दो पर बरसते जब तो एक होकर बहते ना...ऐसा प्रेम विदग्धमाधवे का जिसे निरख सखियों के हियकंवल खिलते रहते और भरते रहते अनुराग प्रियाप्रियतम हिय में...अहा...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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