Skip to main content

बसन्तोत्सव , संगिनी जु

Do Not Share

"श्रीकुंजबिहारी कौ बसन्त सखि चलहु न देखन जाहिं।
नव बन नव निकुंज नव पल्लव जुवतिन मिलि माहिं।।
बंसी सरस मधुर धुनि सुनियत फूली अंगन माहिं।
सुनि श्रीहरिदास प्रेम सौं प्रेमहिं छिरकत छैल छुवाहिं।।"
चल ना प्यारि सखि...चल तो...काहे रूठी है री...चलैगी ना तो मन भाव भरि आवैगो...मान छांड़ि बसंत रंग चढ़ि जावैगो...रसीलो रसनहुं की रसीली सौंज सौं भीगी भीगी राग मल्हार अंगनि सौं झरि आवैगो...चल ना री...
ए री सखी जु...स्यामा जु तनिक मान करि कै तन मनहुं बिसराए रही...जानूं जे कोए मान रूसनो की ऋतु ही ना है री...पर बसंत है ना री...री जे तो मिलन की ऋतु...और मिलै ही रहैं जुगल...पर रसबर्धन हेत प्यारि जु किंचित नोक झोंक करै हैं री...रंगीलो बसंत कौ रस प्रगाढ़ होवै ना...तनिक सी नोंक झोंक से सखी री...नव पल्लव नव वल्लरियाँ खिल आतीं...अहा
सखी...प्रिया जु मान में भी ऐसी प्यारि लागै के बरनि ना जाए जांकि रूसने की छवि और जे ऋतुराज बसंत कौ रूसनो...हाय...का करि कै सुझाऊं री तोय...अहा...
पतो है...धामों में बृंदाबन धाम...और पुलिन में पुलिन जमुना जु कौ...अद्भुत झिलमिल झिलमिल झलकै री...जैसे कोई प्रतिबिम्ब होवै...और ऋतुओं में बसंत ऋतु कौ अति सुंदर सुघर रसहिंडोरनो...झिलमिल झलमलाती तरु लताएँ और पुहुप वृष्टि...मध्य रसकंवलन कौ जाल सो बिछो है री...और रसछुदित भ्रमर गुंजार करते डोलते फिरते...अहा...न्यारेई होवै री किंचित सब ऋतुन सौं...जे ऋतुन कौ न्यारौई रंग...जद्दपि नित बसंत कुंजन में पर बसंत कौ नव बसंत की बात कौ ना अंत री...
"जै श्रीवृंदावन आनंद न अंत।तहाँ श्रीस्यामा संतत बसंत।।
सब रितु राजत रसिक संग।ताके सुखदायक सब अंग अंग।।"
सखी री...नित नव राग अनुराग भरै और छलकै बसंत की रसीली रसमुदित क्यारियों में...नित नव रसपल्लव झरै...नित नव अनुराग...नित नव सुहाग...नित नव सिंगार...
अरी...पियप्यारि कौ रूप सरूप न्येरौई लागै...अनंत राग रागिनियों से भरह्यौ पूरौ सिंगार और जे सिंगारन कौ सिंगार प्यारे जु की रसपिपासा कू बढ़ावै...और सिंगार की नवेली सौंज सौं सजीलि स्यामा जु रसलोलुप्त भ्रमर संग नर्मदिलि से किंचित रसीलि मान सौं उभर उभर छलक जावै...अहा...
स्यामसुंदर की रसतृषित वेणु जब कूजै है न री तो प्यारि जु कौ मान पल हुं तें घुमान में बदलते बदलते अतिरस रंग से भीना भीना सहज भाग जावै री...और वे रोकते ना रोकते मयूर मयूरी की मल्हार सौं पसीजी हंस हंसिनी सम मेलि सुमेलि ना अघावै...
सखी री...स्यामसुंदर रसीलो हठीलो रागालाप करै है री जे ऋतु में और मान भंग तांई छेड़ै है प्यारि जु ने...और प्यारि जु तनिक मंद मंद पर सीत ब्यार सौं नठती ठिठकती कोमल धूप सी खिलि जावै...अहा री...अबहुं तो चलि री... ... ...
"परम नरम रस रीति प्रिया जु की प्रीति निरंतर गाऊँ"
सखी री...सर्द पवन को भी सरस करती जे रसीली धूप...अहा...जे प्यारि जु की प्यारि सी नोक झोंक...दूर हटाने की नहीं...अपितु पास लाने की प्यारि हठीली सुरीली सरसीली सुतान...प्रियतम सीत ब्यार सम प्यारि को तनिक सहलाते ठिठुराते हैं...प्यारि जु सरकती सिमटती बसंती कोकिल की वाणि सुन समीप आतीं हैं...किंचित हाँ ना हाँ ना में उनकी हाँ ही होती है...अहा...
कभी भृकुटि की कटीली तान तो कभी स्वतः झरती फुलवारी हमारी प्रिया जु...अति चतुर नागरी और अति सुकुमार भोरि भी...प्रेम डोर से बंधी प्रेम डोर को अह्लाद उन्माद से सींचित करतीं रहतीं और प्रियतम हियप्यारि की नरम सरगरम रसाट्ठकेलियों सुकेलियों पर वारि बलिहारि जाते...जैसे उनके हिय कंवल पर मकरंद का निर्मल रसीला झरन है जे प्यारि जु की संगदिलि...अहा...
"बिहरत राजरितु बनराइ।जहाँ नित उदित नव नव भाइ।।"
ऐसी सौरभ उठती जे छेड़न तें कि लाल भ्रमर सम खिंचे आते और प्यारि तुनक तुनक ठनक ठनक करतीं बसंती मान सौं छलछलाती मकरंद झरातीं...
सखी...कभी हंस हंसिनी कौ किलोल करते निहारि री...अहा...मधुर मधुर सरसीली जलतरंगों पर...सतह की शीतल सिहरन और उस पर महकते कंवल पर सुनहरी पराग पर पड़ती सरस सूर्य की रसीली धूप...सखी इसे देख रसिकभ्रमर भी उड़ि उड़ि गुंजार करते और समीप ही जे कंवलदल के मध्यस्थ किलोल करता जुगल जोड़ा हंस हंसिनी का...अहा...रसीले पंखों से जल तरंगायित कर...हंसिनी को भिगोता और भीगी भीनी सी हंसिनी की पंख झकझोरन बसंती सौरभ से खींचती हंस को...जो प्यारि हंसिनी की सौरभता सौंदर्यता पर रसडुबकियाँ लगाता ना अघाता...रसीले अंग प्रत्यंगों पर ढुरकता मंडराता रहता...अहा...
कृष्णसुखार्थव्याकुला श्यामा जु की रसीली कटीली भौंह भृकुटि नरम रसाट्ठकेलियाँ पिय कौ अति सोहैं री और प्रेम सुधा में बहते बहते दोऊ परस्पर बसंती नयन आवरण औढ़ लेते... ... ...परम सौरभ और परम सुरभित रसरंगभीनि बसंत सी रसाकुल करतीं...प्रेम की सौंज में सजी अह्लादित उन्मादित रसीली नरमपण्डिताई से झीनि झीनि प्यारि जु की प्यारि हर्षाती भावभंगिमाएँ...अहा री... ... ...
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !!
जयजय श्रीहरिदास !!

https://youtu.be/Vmz4wfiE8yA

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात