मेरो मन बात इती चाहै ।
तुम बिनु सब सुख विष सम लागैं , लै लै नाम कराहै ।
तोसौं प्रीति बढ़ै अति गाढ़ी , तो बिन और न चाहै ।
निशि वासर नित नेम नाम कौ , नित नव नेह निबाहै ।
भोरी जो करि कृपा विलोकौ , तो कछु कठिन कहाहै ।
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यह प्रेमी हृदय की वेदना है । दुःख में नहीँ , सुख विष लगे क्योंकि तुम (किशोरी जु ) संग नहीँ ।
प्रीति की गहन स्थिति की यह व्याकुल अद्भुत प्रेमी , प्रेम की गाढ़ता पर यह भावना कि प्रीति बढ़ै ।
राजसिक धर्माधिकारी का पद त्याग यह महाप्रेमी सन्त वृन्दावन की लताओं से लिपटे रोते रहते , कुछ समय तो मधुकरी भी त्याग सेवा कुञ्ज के वानरों द्वारा छोड़े चने के तूतड़े खा कर रहे , रोते हुए । गहन विरह , अति व्याकुल । और रस की प्रगाढ़ता पर अनुभूति अभिव्यक्त हो रही ऐसे जैसे वह प्रेम में अभी है ही नहीँ ।
सब कुछ बदल जात जग माहिं ।
या मन की यह कठिन कुटिलता , कैसेहु बदलत नाहीं ।
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अपनी कटुता की अनुभूति भी हमें क्यों नही होती ।
"तृषित"
देखत देखत दिन सब बीते
ReplyDeleteतुम अटूट अनुराग की दाता
हम अजहूं रीते के रीते
Radhe radhe ji ..akdm man ki bat kah di. ..
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