Skip to main content

नृत्य प्रतियोगिता , अमिता दीदी

नृत्य प्रतियोगिता
~~~~~~~~

एक बार श्यामसुन्दर के मन में श्री किशोरी जू और उनकी सभी सखियों का नृत्य देखने की इच्छा हुई। नटखट कान्हा अपने सखाओं से बोले यदि हम एक नृत्य प्रतियोगिता रखें और इन सब गोपियों को हरा दें तो कितना आनन्द हो। उनकी शरारती मित्र मण्डली उछल कूद तो खूब जाने पर नृत्य करना सबके बस की बात कहाँ।

     श्यामसुन्दर ने नृत्य प्रतियोगिता की बात श्यामा जू और उनकी सखियों से कही जिसे श्यामा और सब सखियों ने हँसकर स्वीकृति दे दी। इस नृत्य प्रतियोगिता में जितने वाले को हारने वाले से अपनी मनचाही बात मनवानी थी। प्रतियोगिता के लिए उपयुक्त स्थान और समय नियत हो गया।

    श्यामा और उनकी सारी सखियाँ तो नृत्य संगीत में अद्भुत प्रवीण थीं। सब ताल से ताल मिला नाचने और गाने लगीं। दूसरी और नटखट मित्र मण्डली को उछल कूद से ना फुर्सत मिले न ही नाच गान के लिए कोई प्रयास हुआ।  

    प्रतियोगिया का दिन पास आ गया अब श्यामसुन्दर अपने सखाओं से कहते हैँ यदि हमने अभी भी कोई प्रयास नहीं किया तो हमारी नाक कट जावेगी। सब सखा बेसुरी ताल दे गाने और नृत्य का अभ्यास करने लगे। आहा ! उनके इस प्रयास को देख श्यामा और उनकी सखियों की हँसी छूट रही थी परन्तु उन्होंने नोक झोंक करना उपयुक्त नहीं समझा।

    प्रतियोगिता का दिन आ गया। नियत समय पर प्रतियोगिता शुरू हुई। कान्हा और उनकी नटखट मण्डली का नृत्य संगीत देख देख श्यामा और उनकी सखियाँ खूब हँसी । अब श्यामा और उनकी सखियों की बारी आई। अद्भुत नृत्य और गान हुआ। बलिहारी बलिहारी ऐसा नृत्य संगीत देख श्यामसुन्दर का मन मुग्ध हो गया। प्रतियोगिता तो मात्र एक बहाना था उनको तो इस अद्भुत आनंद की चाह थी। अब सखियाँ बोली श्यामसुन्दर आप और सारी सखा मण्डली हार गयी है अब आपको अपनी हार स्वीकार करनी होगी और हमारी श्यामा जू के चरण छूने होंगें। आहा ! आनन्द एक तो प्यारी जू का सखियों संग अद्भुत नृत्य देखा और सखियों ने प्यारी जू की चरण सेवा दिलवा दी। श्यामसुन्दर आज अपने सौभाग्य पर प्रसन्न हो रहे हैँ। श्यामसुन्दर के हृदय में कोई अभिलाषा हो और वो श्यामा पूरी नहीं करें ऐसा तो कभी सम्भव ही नहीं हुआ। श्यामा अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से अभिन्न ही हैँ।

  ऐसी अद्भुत प्रीती पर पुनः पुनः बलिहारी।

    जय जय श्री राधे

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ छैल छबीलौ, गुण गर्बीलौ श्री कृष्णा॥ रासविहारिनि रसविस्तारिनि, प्रिय उर धारिनि श्री राधे। नव-नवरंगी नवल त्रिभंगी, श्याम सुअंगी श्री कृष्णा॥ प्राण पियारी रूप उजियारी, अति सुकुमारी श्री राधे। कीरतिवन्ता कामिनीकन्ता, श्री भगवन्ता श्री कृष्णा॥ शोभा श्रेणी मोहा मैनी, कोकिल वैनी श्री राधे। नैन मनोहर महामोदकर, सुन्दरवरतर श्री कृष्णा॥ चन्दावदनी वृन्दारदनी, शोभासदनी श्री राधे। परम उदारा प्रभा अपारा, अति सुकुमारा श्री कृष्णा॥ हंसा गमनी राजत रमनी, क्रीड़ा कमनी श्री राधे। रूप रसाला नयन विशाला, परम कृपाला श्री कृष्णा॥ कंचनबेली रतिरसवेली, अति अलवेली श्री राधे। सब सुखसागर सब गुन आगर, रूप उजागर श्री कृष्णा॥ रमणीरम्या तरूतरतम्या, गुण आगम्या श्री राधे। धाम निवासी प्रभा प्रकाशी, सहज सुहासी श्री कृष्णा॥ शक्त्यहलादिनि अतिप्रियवादिनि, उरउन्मादिनि श्री राधे। अंग-अंग टोना सरस सलौना, सुभग सुठौना श्री कृष्णा॥ राधानामिनि ग

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हरिवंश की,जब लगि आयौ नांहि। नव निकुन्ज नित माधुरी, क्यो परसै मन माहिं।।2।। वृन्दावन सत करन कौं, कीन्हों मन उत्साह। नवल राधिका कृपा बिनु , कैसे होत निवाह।।3।। यह आशा धरि चित्त में, कहत यथा मति मोर । वृन्दावन सुख रंग कौ, काहु न पायौ ओर।।4।। दुर्लभ दुर्घट सबन ते, वृन्दावन निज भौन। नवल राधिका कृपा बिनु कहिधौं पावै कौन।।5।। सबै अंग गुन हीन हीन हौं, ताको यत्न न कोई। एक कुशोरी कृपा ते, जो कछु होइ सो होइ।।6।। सोऊ कृपा अति सुगम नहिं, ताकौ कौन उपाव चरण शरण हरिवंश की, सहजहि बन्यौ बनाव ।।7।। हरिवंश चरण उर धरनि धरि,मन वच के विश्वास कुँवर कृपा ह्वै है तबहि, अरु वृन्दावन बास।।8।। प्रिया चरण बल जानि कै, बाढ्यौ हिये हुलास। तेई उर में आनि है , वृंदा विपिन प्रकाश।।9।। कुँवरि किशोरीलाडली,करुणानिध सुकुमारि । वरनो वृंदा बिपिन कौं, तिनके चरन सँभारि।।10।। हेममई अवनी सहज,रतन खचित बहु  रंग।।11।। वृन्दावन झलकन झमक,फुले नै

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... परमानन्द प्रभु चतुर ग्वालिनी, ब्रजरज तज मेरी जाएँ बलाएँ... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... ये ब्रज की महिमा है कि सभी तीर्थ स्थल भी ब्रज में निवास करने को उत्सुक हुए थे एवं उन्होने श्री कृष्ण से ब्रज में निवास करने की इच्छा जताई। ब्रज की महिमा का वर्णन करना बहुत कठिन है, क्योंकि इसकी महिमा गाते-गाते ऋषि-मुनि भी तृप्त नहीं होते। भगवान श्री कृष्ण द्वारा वन गोचारण से ब्रज-रज का कण-कण कृष्णरूप हो गया है तभी तो समस्त भक्त जन यहाँ आते हैं और इस पावन रज को शिरोधार्य कर स्वयं को कृतार्थ करते हैं। रसखान ने ब्रज रज की महिमा बताते हुए कहा है :- "एक ब्रज रेणुका पै चिन्तामनि वार डारूँ" वास्तव में महिमामयी ब्रजमण्डल की कथा अकथनीय है क्योंकि यहाँ श्री ब्रह्मा जी, शिवजी, ऋषि-मुनि, देवता आदि तपस्या करते हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ब्रह्मा जी कहते हैं:- "भगवान मुझे इस धरात