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राधा पूछे राधा कौन , अमिता दीदी ।

राधा पूछे राधा कौन
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एक बार श्री राधा अपनी सखियों के संग यमुना किनारे बैठी होती हैँ। सभी सखी आपस में श्री राधा और श्यामसुन्दर के प्रेम की बातें करती हैं। कोई कहती है राधा के रोम रोम में श्यामसुन्दर बसे हैँ । राधा के समान श्यामसुन्दर को कोई प्रेम नहीं कर सकता। राधा का हृदय केवल श्याम के लिए धड़कता है।
   
        कोई सखी श्यामसुन्दर का राधा से प्रेम बखान करती है। श्यामसुन्दर सदैव राधा जू की सेवा को लालयित रहते है। श्याम को हर और राधा ही राधा लगती है। श्री जू बैठी बैठी सब सुनती है। उनके हृदय में राधा और श्याम के प्रेम का आस्वादन इतना बढ़ जाता है कि स्वयम् को भूल ही जाती हैँ। मन में राधा श्याम के प्रेम का ही चिंतन चलता रहता है।

      श्री जू बहुत उदास होकर बैठ जाती हैं। स्वयम् का राधा होना ही भूल जाती हैँ। मन में यही चिंतन श्याम राधा के हैँ। राधा श्याम की है। दोनों का प्रेम नित्य है। हा ! मैं श्याम को प्रेम नहीं दे पाई। मुझसे श्याम को कोई सुख नहीं हुआ। राधा मेरे प्रियतम श्याम को प्रेम दे रही है। उनको सुखी कर रही है। मुझे इस बात से कितनी प्रसन्नता हो रही है। मेरे श्याम को सुख मिल रहा है। मुझे ये तो ज्ञात होना चाहिए ये राधा कौन है। ये कैसी हैं जिनके प्रेम का सुख श्याम को हो रहा है। मुझे राधा को देखने की जिज्ञासा हो रही है।

     एक सखी श्री जू से पूछती है ,तुम इतनी उदास क्यों हो। बहुत समय से तुम खोई हुई हो। तभी श्री जू उस सखी से पूछती हैँ सखी तुम जानती हो ये राधा कौन है ,कैसी है ,कहाँ रहती है। राधा से मेरे प्रियतम श्याम को सुख हो रहा है। मुझे इस रमणी को देखने की जिज्ञासा हो रही है। सखी एक बार तो आश्चर्य चकित हो जाती है। आज मेरी स्वामिनी जू को प्रेम का ऐसा दिव्य उन्माद हुआ कि वो स्वयम् राधा है ये भी स्मरण नहीं रहा। आहा !युगल सरकार का प्रेम कितना दिव्य ,अनन्त, पूर्ण प्रेम है जहां अपना अस्तित्व ही नहीं। केवल प्रेम ही प्रेम। सखी श्री जू की बात सुन मन्द मन्द मुस्कुराती है।

    तभी वहां श्यामसुन्दर आ जाते हैँ । श्री जू उनके पास जाती हैँ और पूछती हैँ श्यामसुन्दर तुम प्रसन्न तो हो। मैं कुरूपा अभागा तो आपको प्रेम ही नहीं दे पाई। आपको राधा से सुख हुआ इसी से बहुत प्रसन्न हूँ। श्यामसुन्दर स्वयम् आश्चर्य में पड़ जाते हैँ। वो राधा से कहते हैँ हाँ तुम ठीक कहती हो। राधा नाम की रमणी मेरे रोम रोम में बस गयी है। राधा के बिना मैं अधूरा हूँ ।मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। तुम देखना चाहती हो राधा को। श्री जू राधा को देखने को बहुत उत्साहित हैँ। श्यामसुन्दर सखी को कहते हैँ तुम दर्पण उठाओ और श्री जू के सन्मुख करो।

   सखी दर्पण उठाकर श्री जू के सन्मुख करती है और कहती है इधर देखो ये राधा है। श्री जू तो अपने भाव में इस प्रकार डूबी हुई हैँ उन्हें दर्पण में श्याम ही दिखाई पड़ते हैँ। सखी तुम मुझसे परिहास करती हो ये तो तुम मुझे श्यामसुन्दर का चित्र दे दी हो। मुझे राधा की छवि देखनी है। सखी और श्यामसुन्दर एक दूसरे की और देखते हैँ। आज तो राधा जू बाँवरी हो गयी हैँ। प्रेम का ऐसा उन्माद तो पहले न हुआ कभी उन्हें । श्यामसुन्दर कहते हैं तुम इधर आओ तुम्हें राधा दिखाता हूँ । मेरी आँखों में देखो यहां राधा की छवि है। मेरी धड़कन सुनो इधर राधा ही है। जैसे ही राधा श्यामसुन्दर के नैन में झांकती है श्यामसुन्दर उन्हें स्पर्श करते हैँ। प्रेम का इतना गहरा भाव रूप कि श्री जू स्पर्श से मूर्छित हो जाती हैँ। कान्हा उन्हें अपने अंक में भर लेते हैँ और श्री जू को चेतना में लाने की चेष्ठा करते हैँ।

     कुछ क्षण बाद श्री जू के शिथिल अंग धीरे धीरे हिलने लगते हैँ। चेतना लौटने लगती है। श्यामसुन्दर पुकारते हैँ राधे ! राधे ! तो राधा आँखें खोल देती हैँ। स्वयम् को श्याम सुंदर के अंक में पाकर शर्माने लगती हैँ और उनके पीताम्बर में मुख छिपा लेती हैँ। अभी वो अपनी पहली भाव दशा से बाहर हैं और श्यामसुन्दर के प्रेम में पुनः डूबने को लालयित हैँ। श्यामसुन्दर और सखी श्री जू को देख आनंदित हो जाते हैँ।

   इस अद्भुत प्रेम की जय हो।

     जय जय श्री राधे

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