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एक समय एकांत बन में ... संगिनी जु भाव

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""एक समय एकांत बन में""
श्यामल समय...श्यामल सिज्या पर...जान से परे...आत्मध्यान में...जहाँ श्वास ही ब्याररूप...नेत्रों की नमी स्पर्शरूप...अश्रुजलतरंगरूप...यमुना की मंद बहती बिहंसती पुलिन पर...अंजान नहीं...मोहित है...प्रेममय...लोभी रसप्रवाह की...दृष्टि चंचल...पर दृष्टांत सुघर... ... ...अहा !!
"छिन-छिन नई-नई पानिप अनूप कांति,देखे तन झलकाति रहै न संभार री"
इतनी निश्चलता कि रिक्त आरसी भी झूठी पड़ जाए...एक रसवपु...दूसरा प्रेमवपु...श्यामयमुना के गौरनिश्चल प्रवाह पर झलकती दो'रस विलसन रस रंग'राधिकारंगीली छवियाँ... ... ...आह !!
"चिबुक सुचारू प्रलोइ प्रबोधक पिय प्रतिबिंब जनाए निहोरी।"
अजान करते पर अंजान नहीं दो नेत्र...निहार रहे परस्पर नहीं...अपितु स्वयं को निहारते तट पर सुसज्जित विराजित युगल रसजोड़े को...स्वयं को क्यों?... ... ...
सखी री...इतने पाक निश्चल व सरसरस यह वपु री कि स्वयं को निहारते स्वनयनन में दरस पा रहे परस्पर का...और स्वनेत्रन से ही अपलक भींजन करते भींज रहे परस्पर हियकंवल में यह अति सुंदर उज्ज्वल रसिक सुकोमल द्वैरसवपु...अहा !
"अद्भुत छबि की माधुरी,चितै विवस है जाहिं।यहै सोच पिय प्रेम को रहत प्रिया मन माहिं।।"
एकांत मौन सजल ब्याररूप श्वास से महकती बहती अश्रु मात्र से जलतरंग को थिरकाती और लालसुरख अधरों की मंद मुस्कन से पुलकित सिहरित अजान करती बिन नूपुर पायल ही'आवत जावत नूपुर बजावत'...आह...रागिणी सी खिल उठी और मंद प्रवाह में जैसे किंचित एक नयनकोर से बह अश्रुजल मिला और तरंगें उठने लगीं हिय की चादर सलवटों से सुलझ उलझ रसवपु को प्रेमवपु से छुआ सी गई... ... ...
"अरुझि विमल माल कंकन सों कुंडल सों कचडोर।वेनथु-युत क्यौ बनै विवेचित आनंद बड़यौ न थोर।"
बस इतना सा सहज स्पर्श कि उलझ गई कंठमाल और बज उठा यमुना जल के प्रतिबिंब पर मंद ब्यार से रस नूपुर जैसे मौन सागर की लहर को मात्र मिहीन सजल किरण ने छुआ और तरंगायित हो उठी एक लहर...जैसे मीन को तनिक सा जलस्पर्श श्वास की डोर से बाँध चला और वह बहते बहते जी उठी रसतरंग में एक हो जाने को...अहा !
सखी री...कबहुं निरखि हो इस मधुर प्रवाह को...श्यामल प्रवाह...गौर लहर...जिसे भगदड़ नहीं मची है समुद्र में जाकर मिलने...होड़ है बस बहते ही रहने की...अनवरत रससार बनाए रखने की इस श्यामल मंदरसस्मित प्रवाह को...जैसे यमुना जु का जल यमुना जु में ही बहता संतुष्ट रहता...उसे कहीं जाकर सागर से नहीं मिलना...ऐसे ही...ऐसे ही यह द्वेपु धारी श्यामसागर और गौरतरंग...बहते...उठते...झुकते...झूलते...रिसते...सिमटते...मिलते परस्पर और कब कौन किसमें समा जाता... ... ...बखान नहीं बस एक गहरा सा...गहनतम एहसास...जहाँ मिल जाते और एक होकर फिर...फिर...फिर किंचित स्पर्श से खिल उठते यमुना पुलिन पर रस कमल कमलिनी...उस एक रसदृष्टि की सहज निर्मल पर सुरतांत क्रीड़ावत रस छुअन से... ... ...अहा !!
"कोक कला कुशल अति उदार री।
सुरत रंग अंग-अंग हाव-भाव भृकुटि भंग,माधुरी तरंग मथत कोटि मार री।।"
चिरजीवो...चिरजीवो...लाललाड़िली चिरजीवो... ... ...
जयजयश्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास !!

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