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प्यारी जु की परिमलता , उज्ज्वल श्रीप्रियाजु

"राधै तन फूल्यौ मदन बाग"

सुरभ परिमल श्रीप्रियाजु

श्रीवेणु...सखी...श्रीवेणु को सुनती हो ना...आह... ... ...
हाँ...खूब भावै है ना प्रति रव तोहे...चोखो लगै है...खूब आनंद रस मिसरी सम घोलै है तोंमे...अरी...खूब गहरो सुनै है नाम इसमें प्यारे की प्यारी जु का...आह... ... ...
पर जानै है यह राधा नाम यूँ ही ना प्रकट है जावै री...
सखी...श्रीवेणु में प्राण फूँकते यह मधुर रसस्वर किंचित वाचिक ना हैं री कि कोई फूँके और राधा नाम श्रवण होई जावै...
सखी री...इस श्रीवेणु में राधा नाम फूँकने के तांई भी एक रसतृषित रसातुर आनंदरस से परिपूर्ण पर चकोर... एक रिक्त हृदय चाहिए री...सरस...निश्चल...ना...केवल इतना ही नहीं...एक रसपिपासु जो छका हो उस रूप सौंदर्य माधुर्य लावण्य से इतना कि उसकी श्वास श्वास से महक...सुवास...सौरभ आ रही हो उस श्वाससौरभि प्यारी की श्वासों की...जो स्वयं की महक को भुला कर केवल उसी की महक से श्वास भर इस मुरलिका में भर रहा हो...अहा !
सखी री...प्यारी जु की यह अद्भुत निर्मल सौरभ ही तो है जो प्राणप्रियतम की रग रग में...उनकी रगों में सुवासित हुई मंथर मंथर रसप्रवाह करती जिसे प्रियतम नित नित नव नव रसपल्लव बन पीते ना अघाते जैसे यह प्यारी जु की महक ही इनकी प्राणसंजीवनी बन इन्हें जिलाए हुए है...श्वास दर श्वास गहरा रही प्रियतम रसामृत में...रससुधा सी यह प्यारी जु की महक...
सखी...दिव्यातिदिव्य रस से परिलिप्त प्यारी जु की श्रीअंग परिमल जीवनस्वरूपिनी जीवनदायिनी है...केवल प्रियतम हिय व रोमावली को ही सींचित नहीं करती अपितु सम्पूर्ण रससार सौंदर्य माधुर्य से सम्पूर्ण श्रीवृंदाविपिन को सुवासित करती है जिसमें सुवास लेता एक एक कण पराग से मकरंद बन झरता रहता है और इसी प्यारी जु की मधुर मौन सरसराती आहें श्रीसखियों की जीवनप्रदायिनी अह्लादिनी उन्मादिनी शक्ति भी हैं...
"फूलनि कौ छांड़ि छांड़ि आवत मधुप धाइ,तन की सुबास अति रही बन छाइ कैं।"
प्रिया जु के अंग प्रत्यंग से उत्थित सौरभ पर प्रियतम का मन रूपी भ्रमर सदा मँडराता रहता है...जैसे उपवन में अनंत अनंत पुष्प लताओं पर अनंत अनंत भ्रमर गुंजार करते मंडराते रहते हैं ऐसे पियहिय भ्रमर रूप रसपिपासु श्यामसुंदर रूपी अति सौंदर्यमाधुर्य से छका यह भ्रमर केवल एक ही प्रिया जु की महक का क्षुधित है जिसे अनंतानंत सौरभ लताओं पुष्पों में इनकी मृगमारीचिका मधुर सौरभ का ऐसा मद रहता है कि अविचलित यह इन प्यारी जु के कमलपल्लवों से प्रतिपल महकता रहता है...जैसे कभी कोई और पुष्प रस को पान किया ही ना इस रसभ्रमर ने...चखा ही ना...शिशुवत...केवल अपनी माँ के हिय की महक को जानने पहचानने वाला...बालरूप पियप्यारी के हियकमल के एकमात्र प्रेममकरंद से छके...भरे हुए...पर तृषित ही... ... ...
"सौरभ ता सुकुंवरि की,जब पावत सुकुँवार।
फैलि परत जनु प्रेम रस,रहत न देह संभार।।"
रोम-रोम प्रतिरोम में प्यारी जु की महक...अहा ! प्रान स्वाँस संचारी यह पियमनभाविनी की महक ऐसे भावित करती कि प्रियतम को तन की संभार नहीं रहती...सखी री...निरख तो...कितने सुंदरातिसुंदर सुवासित पुष्प खिले हैं इस श्रीवृंदाटवि की सुरम्य सुगम्य रसधरातल पर...अहा...और इस प्यारी वृंदाटवि की परिमल सेज पर सुसज्जित यह सवर्णिम वेणीलतामंडित रसझरझर्राती गौरनीलाभ कमलिनी...आह... ... ...बार बार मकरंदपान हेतु श्यामभ्रमर इसके समीप आता है और कभी स्वयं स्तब्ध ठिठक कर रह जाता है तो कभी किसी लता की किंचित निहारन से लज्जाशील कमलिनी से तनिक विलग होता है...एक बार...दो...फिर तीन बार...अनंत बार प्रयासरत यह परिमल पिपासु रसभ्रमर कमलिनी के समीप आता है रसपान हेतु...और बिना स्पर्श ही इसकी महक से मत्त हुआ जाता है...
सखी री...मधुरस्कित...परमआकर्षणकारी यह श्रीअंग परिमल प्रियतम को जैसे जैसे खींचती है वैसे वैसे रसप्रगाढ़ता से भर कर यह भ्रमर देहविस्मृत करता जाता है...लतापल्लवों की आहट भर इसे विक्ष्पित तो करने में समर्थ हो पाती है पर यह जहाँ रसपान आरम्भ करता है पलट पलट कर वहीं आ आ कर रसपान भी करता है...सच... ... ... अद्भुत रसीली यह महक प्यारी जु की कभी नयनाभिराम अधरपान तो कभी हियपान को व्याकुलित करती नित नव सौरभ भरती बिखेरती है कि प्रियतम क्षण क्षण रसलिप्त अपनी ही रसदेह में समा चुकी इस अतीव रसभीनी प्यारी जु की महक का पान करते सुवासित हुए छकित आहें भरते रहते हैं...
सखी...इस श्रीअंग परिमल को और अधिक मधुरिमा प्रदान करता यह प्यारी जु के हियकमल की कुमलता सुकुमलता का प्रेमरस जब किंचित बूँद भर भी छलक जाता तब तो सुरतांत रसकेलियों की झन्कारें स्पंदित हो उठतीं पिय हिय में... ... ..."बाँटत प्रीति सुबास परस्पर रस पराग सृज दम्पति मन गतिचाली"और सखी री...जब प्रिय इन श्वासों को वेणु में फूँकते ना...सखी...तब...तब गोपियाँ ही नहीं अपितु स्वयं श्यामा जु विस्मित होकर प्रेमविवश भ्रमरवत ही खिंची आतीं श्यामसुंदर की पुकार पर जैसे...जैसे...वात्सल्य में इन रसपिपासु को अपनी श्रीअंग परिमल का पान कराने...ममतापरवश...आह...प्यारी जु की सुवास ही प्यारे जु का जीवन श्रृंगार... ... ...
"तू मन मोहनी री मोहन मोहे री अंग अंग।
अगमनी अलकैं वर उर पर छूटी लट मुख हँसत लसत दसनावलि सहज भृकुटि भंग।।
मृग मधुप लौं स्याम काम बस तजे वन बेलि धाम सौरभ सुर सब्द सुनत फिरत संग संग।
श्री बिहारिनदासि स्वामिनी सुखरासि रहसि फिर चितयौ हित यौं मानि आनि उर अंग अंग अनंग।।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम !!
जयजय श्रीहरिदास !!

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