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उज्ज्वल श्रीप्रियाजु चारूसौभाग्यरेखाढया "चरण-चिन्ह" संगिनी जु

'जहाँ जहाँ चरन परत प्यारी जू तेरे तहाँ तहाँ मन मेरो करत फिरत परछाहीं।'
अहो !श्रीकालिन्दी के पुष्पित वृक्षों से मण्डित तीर पर मधुर भाव के सौभाग्ययुक्त नव वृन्दावन के लतानिकुंजों में नववयस, नवानंग रसासक्त, परमरसभाव में ही एक मात्र निरत,मधुर क्रीड़ा-परायण गौर श्याम युगल चरण...अहा !
सखी री...कालिंदी कूल से किंचित अधीर सी उठ कर भागतीं श्यामा जु के चरणचिन्ह अंकित हैं कूल के धरातल पर...प्रिया जु गजगामिनी मृगनयनी प्यारी सी मधुर मुस्कन लिए वहाँ से शीघ्र भागीं और प्रिय श्यामसुंदर उन्हें स्नेहातुर रसातुर कामातुर निहारते उनका दामन थामते हुए से ठिठक कर रह गए...
समीप ही कदम्ब पर एक कोकिल मधुर वाणी से प्रियतमसुख हेतू प्रिया जु की नामावली गा रही थी जिसे सुन श्यामा जु उन्मादित हुईं उसे सहलाने चलीं कि चलते चलते उनके दिव्य अंगों से कस्तूरी झड़ कर उनके ही चरणचिन्हों पर आ गिरी जिसकी महक से प्रियतम श्यामसुंदर वहीं वंशी व पीताम्बर धरा पर धर विराजित हुए...आह... !
प्यारी जु के चरणचिन्ह जैसे श्यामसुंदर का सौभाग्य हैं जिन्हें निहारते श्यामसुंदर ध्यानमग्न हो जाते हैं और प्यारी जु के अति रस प्रेम से छके लुण्ठित होने लगते हैं इन सरस सौभाग्य संजीवनी मंगलमय चरणचिन्हों पर...सखियों के लिए यह चरणचिन्ह जीवनी हैं तो श्यामसुंदर जु का लिए प्राणसंजीवनी...अहा...प्यारी जु के चरण व चरणचिन्ह...
जहाँ प्रियाजू का ध्यान करते,मुरली हाथ में ले अधरों पर धर लेते तो ग्रीवा झुक जाती... अहा...यह उमंग...
ध्यान में देखना आरम्भ करते कि कटि झुक जाती...आह...यह व्याकुलता...और टेरते-टेरते मन गतिशील होने लगता मिलन की चाह से...संभार नहीं रहती तो चरण मुड़ जाते...हाय...नख से शिख तक प्रेमावेश में तीनों अंग मुड़े तो रस वपु प्यारे लाल की ऐसी अद्वितीय अपार शोभा उभर आती कि कहते बने ना...
प्रेमावेश में ऐसे त्रिभंगी हो जाते कि तन मन प्रिया जु के रंग में रंगे हैं'मोहन मदन त्रिभंगी,मोहन मुनि मन रंगी'
सखी...जैसे जैसे प्रेमावेश रसकामातुर होता तो प्रियतम प्यारी जु के चरणचिन्हों पर लोटते हुए रजकणों से लिपटते उन्हें अपनी देह पर धारण कर लेते हैं...रोम रोम पर प्यारी जु के चरणाचिन्ह अंकित
हो जाते...सखी...रसतृषित श्यामसुंदर रस की गहनतम प्रगाढ़ता में किन्हीं सखी हिय पर भी इन चरणचिन्हों को देख उत्कण्ठितमना उस सौभाग्यशालिनी सखी के चरणों में पड़ उससे श्यामा जु से मिलन की याचना करते उसे अपने हृदय से लगा लेते तो कभी सखीभाव से उसका रसावलोकन करते उस पर तन मन प्राण वारने लगते हैं...
'प्रियाजू के चरण कमल सुखदायी।जो पद कुँजबिहारी बाँछत श्री हरि दासी लड़ाई।सखी तेरे प्रेम रहत श्री श्यामा तू निअरी रहत सदाई।
इनकौ मन जानत सो पुरवत         सेवत मो मन भाई।'
रोम रोम पर सुसज्जित यह चरणचिन्ह भी जब प्यारे को अत्यधिक अधीर करते तो प्रियतम इन चरणचिन्हों को अर्थात अपनी चरणचिन्हांकित देह को पुष्प व नरम कोमल आभूषणों से सजाने लगते हैं यह सोच कि यह देह पर प्यारी के चरणचिन्हों की पूजार्चना कर रहे...अहा...सेवारूप हो उठते प्यारे प्रियतम
'बहुत मुरति मेरी चंवर ढुरावति कोऊ बीरी खवावति एकब आरसी लै जाहीं।।
और सेवा बहुत भाँतिन की जैसीयै कहैं कोऊ तैसीयै करौं ज्यौं रुचि जानौं जाहीं।
श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा कौं भलै मनावत दाइ उपाहीं।।'
उधर श्यामा जु प्रियतम सुखहेतु अपने नाम का गान सुनती कोकिल संग एक से दूसरे कुंज में थिर थिर चरण रसध्वनियाँ करतीं जा रहीं हैं और प्रियतम इनके चरणचिन्हों का अवगाहन करते पीछे चलते मयूर मैना संग उन्हीं उन्हीं कुजों में से होते हुए आखिर अंतिम निकुंज में जहाँ प्यारी जु मधुर गान सुन मयूरी संग नृत्य क्रीड़ा करने लगीं हैं वहाँ पहुँच जाते हैं...जैसे यह मयूर कोकिल हंस मैना इत्यादि श्यामसुंदर जु का ही अंशमात्र हों ऐसे प्रिया जु के धरा पर अंकित चरणचिन्हों को पुष्पों से सजाते हुए प्रियतम हेतु साज संभार करते सेवातुर हैं।एक एक सखी वहाँ श्यामसुंदर स्वरूप प्यारी जु की सेवा बन उनका लालन पालन कर रही है...अद्भुत...'वृंदावन हित रूप किरति लड़ैती राधा,चार वेद राग जाके नूपुर की धुनि है'...
प्यारे जु सुकोमल जावकरंजित चरणचिन्हों से चिन्हित प्यारी जु की अनियारी न्यारी नृत्य भावलहरियों को निहारते अधीर होते जाते हैं और जैसे ही प्यारी जु प्रियतम श्यामसुंदर जु को यूँ चरणचिन्हित व रजकणों से मस्तक व हिय पर कस्तूरी मिलित श्रृंगार धारण किए देखती हैं उन्हें करूणावात्सल्य से हृदय से लगा लेती हैं... ... ...
'आजु तृन टूटत है री ललित त्रिभंगी पर।
चरन चरन पर मुरली अधर धरैं चितवनि बंक छबीली भू पर।।
चलहु न वेगि राधिका पिय पै जो भयौ चाहत हौ सर्वोपर।'
... ... ...'चांपत चरण मोहनलाल।पलका पौढ़ी कुँवरी राधिका सुंदरी नव बाल।।'
जयजय श्रीश्यामाश्याम  !!
श्रीहरिदास !!

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