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टीस... पुकार , संगिनि जु

एक टीस...एक पुकार...एक प्यास सी उठ रही हिय से...कैसी...यह अतृप्त तृषा...
हा हा... ... ...अभिन्न आलिंगित सदा पर तब भी पुकारती यह तृषा...
जाने कौन भीतर गहरतम समाया जिसकी यह प्यास या मेरी...
अज्ञात पर गुह्यतम...अंतरंग...अंतराग...लावा सी उफनती...भरती...सिसकती...पर थाम ली जाती भीतर ही...कैसे...क्यों...और कब से जाने क्या...हा...बस यही सुनाई आता...बस यही... ... ...
नित नव संगीतमय रगों में दौड़ती...गहराती...और डूबती सी जैसे स्वहित ही प्रतिक्षन बढ़ती जाती...अंतहीन तृषा...
नि:शब्द...मौन...हो जाना चाहती...भीतर खो जाना चाहती...युगों से जहाँ से चली थी...जहाँ से आगाज़ हुआ...उसी आगाज़ में अंतर्लीन हो जाना चाहती है...हा...
पर रोक ली जाती...भीतर ही से...आह
"किंचित ठहरो...अभी नहीं अंत तुम्हारा...आस्वादन हेतु..."
किसका आस्वादन...स्व का...नहीं...नहीं तो किसका...उस आगाज़ का जो प्राणवायु बन रगों में दौड़ रहा...बहा रहा...नवनीत सम...अभी और...अभी और...आस्वादन हेतु रोक लेता...कि अभी मन भरा नहीं...छलकने से रोक लेता छलका कर भी...हिय से हूक उठती नयनकोरों से बह जाने को...पर वह रोक लेता..."ना...ना अभी नहीं...अभी और...और गहराओ...गहरा जाने दो...इतना कि एक होकर भी दो ही बने रहें और तुम छलको...मैं सहेजूं...और अनवरत बहाव को...चंचल...सुघर...सलोनी सी तृषा को अपने करकमलों में भर लूं...हियकमल पर धर लूं...तृषातुर रसतरंगों को...सो बहो...कोमलता से...बहती रहो...मौन...पर नि:शब्द नहीं..."आह... ... ...
आखिर कौन...कौन हो तुम जो यूँ आस्वादन कर रहे रसघण तुम रसपिपासु...क्षुधित तुम...ले चलो जहाँ मैं नहीं मैं...तुमसे आगाज़ तुम ही अंत...अंत को भी विश्राम तो देते पर अनंत युगों से विश्रामित भीतर...अंत को छू भी लेते...पर थमने ना देते...रूकने ना देते...व्याकुल करते...स्पंदित...नित...नित नव...नवरंगी तुम...प्रेमपिपासा लिए प्रेमी गहरे तुम...
एक टीस को भी संगीत मय करते...प्राणों से प्राण...श्वासों से श्वास एक हुई...भीतर महके से...कस्तूरी सम...तुम...केवल तुम...पाए हुए अतृप्त रसपिपासु तुम...खोने को सब...पर सब पाने भी ना देते...
एक एक कर जीवनदायिनी अह्लादिनी शक्ति बने...भीतर संजीवनी से...पर गहराते रहते...और...और...और...आस्वादन हेतु सिहराते रहते...मौन न होने देते...बहती रहूं...ऐसी चाह बन अंतरंग...अंतरंग स्व से भरते रहते...उफनते...बहते...छलकते...हा...प्रियतम...
प्राणों से...श्वासों से...महक से...अब संगीत से घुलते जा रहे...हा...प्रियतम...
अंतहीन तृषा लिए भीतर ही भीतर खोई सी मैं और सरगम बन बहता यह रसवीलीन रसनलिकाओं में मधुर संगीत तुम...हा...हाहाआअ...प्रियतम

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