"रस सरसीली श्यामा श्यामा"
सरस पिय प्रियप्यारि
दोऊ बिराजै कुंजनि टकटक निहारि
फूलन कौ बंगलो फूलि फूलन सखि सारि
कमल कमलिनि खिलै पुंज परकासै चंद दोऊ चारि
देख जिन छबि चंद्र चकोर भए तिन प्रेमसखि बलिहारि !!
'मधुर सुर तनप्राण निरंजन सुनंदिनी नंदन... ... ...'
अहा !!मधुर ध्वनि करतीं प्रियश्यामा जु की पैंजनियाँ यमुना पुलिन पर से...रूनक झुनक...रुनक झुनक...सहसा सुनाई देती हुईं पवन की सरसराहट संग एक कुंज की अटरिया पर से होते हुए कालिन्द नंदिनी की अविच्छिन अति सुकोमल लहरियों में घुल मिल जाती है...
जलतरंगों की लहरियों में सोंधी सोंधी सी महक उठ जैसे ही पवन का स्पर्श पाती हैं...श्यामा जु खिलखिलाकर हंस देतीं हैं...
कजरारे श्यामल नयन कोरों से श्यामा जु समीप आतीं सखी को वहीं रोक देतीं हैं और छन...छन...छन...नूपुरों की ध्वनि करतीं वहाँ से उठ मंद मुस्कान लिए अपनी वेणी से पुष्पों की वर्षा करतीं और श्रीचरणों से यमुना जल को छपछपातीं हुईं दूसरे कुंज की तरफ चल देतीं हैं...
आज उनकी चाल मयूर सी थिर...थिर...और नृत्य की सी मुद्राएँ करती ऐसी है जैसै मदमस्त गज सी वे खोई खोई सी गलियों कुंजों को पीछे छोड़ती जा रहीं हैं और कदम्ब तले आ ठहरतीं हैं...कुछ सखियाँ श्यामा जु की भावभरी चाल थिरकन पर बलिहारी जातीं उनके पीछे पीछे दौड़ती हुई वहाँ आतीं हैं पर श्यामा जु इन्हें वहीं रूकने का कह एक दूसरे हल्के नीले पुष्पों से सुसज्जित उपवन में आतीं हैं और देखती हैं... ... ...यहाँ आरसी पर उन्हीं हल्के छोटे छोटे नीले पुष्पों से एक अद्भुत सुंदर आकृति बनाई गई है जिसे देख श्यामा जु वहीं बैठ उसे निहार रहीं हैं...
जो सखी इस आरसी पर पुष्प सजा रही है वह पुष्पों को केवल आरसी के किनारों पर रख रही है...कुछ ऐसे कि भीतर आरसी में श्यामसुंदर जु की आकृति उभर आई है जहाँ कोई पुष्प नहीं धरे हैं... ... ...अहा !
श्यामा जु यह आकृति देख तुरंत उसके मध्य में अपना मुखकमल निहारती हैं और पातीं हैं कि उनके मुख की छबि पड़ते ही आरसी में रूपसौंदर्य माधुर्य से भरी वो अधूरी छवि निखर उठती है जैसे उसमें प्रेम ने रंग भर दिए हैं स्वयं श्यामा जु की प्यारी चितवन ने और वह उन अतीव सुंदर श्याम को निहारते ही एक और आरसी लाकर सखी को लाल पुष्प सजाने को कहतीं हैं...
सखी तुरंत ऐसा ही करती है और उस लाल पुष्प वाली आरसी पर पुष्प ऐसे सजाती है कि वहाँ श्यामा जु की छबि उभर आए पर न जाने श्यामा जी जैसे ही उस रिक्त पड़े आरसी के हिस्से में अपना मुख निहारती हैं तो वहाँ भी श्यामसुंदर ही नजर आने लगते हैं... ... ...
सखी यह देख आश्चर्यचकित है पर श्यामा जु दोनों प्रियतम छवियों को निहारती हुईं उठ कर थिरकने गुनगुनाने लगतीं हैं और ऐसी मस्त हो जातीं हैं जैसे लाल और नीले रंग के पुष्पों की आकृतियाँ उन संग झूम रहीं हैं।
सखी को संबोधन करतीं श्यामा जु अति प्रसन्नचित्त मुद्रा में इशारा करतीं हैं कि सखी...
आज चहुँ दिशि और धरा अम्बर पर उन्हें वही श्यामसुंदर दिखाई दे रहे हैं जिनका माधुर्य रस स्पर्श श्यामा जु को पल पल अह्लादित कर रहा है और उनके चरण कहीं टिक नहीं रहे हैं...
श्यामा जु सखी को निहारते हुए कहतीं हैं तुममें मुझमें श्यामसुंदर ही भरे हैं और वे इतना कहते ही नीलवर्ण लिए अपने सफेद वस्त्रों को निहारती हुईं झूमने गाने लगतीं हैं जैसे उन्हें मध्य में श्यामसुंदर ही वेणु बजाते आनंद विभोर कर रहे हैं... ... ...
मदनमस्त युगल नीरव वन में नीले आसमान तले नीलपुष्प सुसज्जित धरा पर नाच झूम रहे हैं और चहुं ओर उनकी इस मस्ती में गुनगुना रहे हैं वन्य हंस मयूर और कोकिल सारिकाएँ...
इतने में लीलादृश्य करवट लेता है और सखियाँ श्यामा जु संग गोल घेरे बना कर जैसे रासमंडल रच देतीं हैं और एक एक कर सब सखियों संग थिरकतीं श्यामा जु श्यामसुंदर... ... ...आह !जो कि इन घेरों से बाहर एक चट्टान पर विराजित वंशी बजाते मुस्कराते हुए प्रिया जु के सन्मुख आते ही उनके रूपजाल में बंध कर एक आरसी सम श्यामा जु को उनके ही प्रतिबिम्ब में स्वयं दिखाई देने लगते हैं...
अद्भुत लीला करते युगल और जहाँ चंद्र स्वयं चकोर बन उन्हें निहार रहा वहाँ प्रत्येक पुष्प से परागकण झरते मकरंद कणों में युगल स्वरूप का दर्शन करतीं सखियाँ उन्हें विभिन्न ताल तरंगों में डूबे देख मंद थिरकन थाप से उन संग झूम रहीं हैं...यह रसध्वनि प्रियाजु की चरणनख छटा से प्रियतम हिय में निरखती स्वरसपान कर रहीं हैं...
'नृत्य गीत ताल भेदनि के विभेद जानें कहूँ जिते किते देखे झारि'
जयजय श्रीश्यामाश्याम !!
श्रीहरिदास !!
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