"रसराज हट्ठीले रसरानी गर्वीले रसिक रसीले"
बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद !!
रजरानी का स्पर्श तो दूर कभी दरस ही ना पाया।ये मिट्टी की बनी देह कभी उस मिट्टी में रम पाए ऐसा कोई कर्म ही ना किया।उस नित्य लीलायमान जगत की प्रेम भरी पवन की महक ने कभी छुआ ही ना जो प्रेम का कण ही चखा होता।ये कटु देह सदा ही माया की अनिर्मलताओं में लिप्त रही कि क्या और कैसे जान पाती ये उन सुंदरतम सत्यतम शिवोहम भावदेहों का राज जो सदा से बसतीं एक अनोखे भावराज्य में प्रेमलिप्त युगल रंग में रची रंगी।
रसिक !!
देह से एक साधारण अदना सा दास जो जगत में रहते हुए भी जग के लिए कार्यरत होते हुए भी भिन्न।
रसिक !!
अंनत देहधारियों जैसे ही देहधारी पर देह के बाहरी संस्पर्शों से परे।
रसिक !!
देह होकर भी उतना बाहर नहीं जितना अपने भीतर अंर्तजगत में
रसिक !!
देह के आडम्बर आवरण से ऊपर उठ कहीं एक नए आवाम में जीते।
रसिक !!
देह में रगों में लहु के बहाव से तीव्र एक रस जो हृदय की धड़कन में वीणा के राग सा।
रसिक !!
देह के लिए अन्न भोजन नहीं अपितु वंशी की धुन से अधरों कपोलों से लाल सुर्ख रस सा बहता।
रसिक !!
एक देह जिसका जीवन तन प्राण सब रस ही रस कभी विरह में पिघलता प्रेम में बहता और गहराईयों में डूबता समाता।
रसिक !!
प्रेम से सना प्रेम में ही रचा फिर भी प्रेम की ही अनवरत प्यास।
रसिक !!
देह की अभिलाषा परिभाषा से अनभिज्ञ हृदय में ही गहरा एक समन्दर अपार।
रसिक !!
ऐसा गहरा प्रेम रस जो बिन चखे ही रस को न छूकर भी रसीले रस को बांटना भी इनका काम।
रसिक !!
रसराज रसरानी के प्रेम की रसतरंगों में गोते लगाते भीगे से सदा रस ही बरसाते।
रसिक !!
स्वहेतु नहीं युगल प्रेम के छींटे इनके प्यासे मन को भाते डुबाते महकाते।
रसिक !!
प्रियाप्रियतम के परस्पर सुख में सुख पाते और अंत में सच कहूँ तो खुद अकिंचन पर श्यामा श्यामसुंदर जु का प्रेमरस भरा हृदय ही होते।
रसिक !!
जय जय रसिकेश्वर जय जय रसवर्षिणी !!
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