श्रीअंग परिमल-भाग 2
"श्री जी से अनन्य होई वांके हृदय की सौरभ अनुभूत कर री...प्रियतम की मूल सौरभ जे ही...प्रियतम प्राणन की सौरभ...प्राण वायु उनकी श्रीजी अंग सौरभ"... ... ...अहा !!
सखी री...जे महक कौ तू सही कही पर जानै है जाको मूल री...जे तो हमहिं जानै ना कि स्यामा जु कौ स्वरूप स्यामसुंदर सौं अभिन्न है री...और यांके मूल में श्यामसुंदर ही श्यामा जु ह्वै...कोई भेद ना है री...एकहु रस...एकहु महक...एकहु मूल...दोऊ जैसे एकहु फूलनि के मकरंद रसनहुं सौं महकै चहकै रह्वैं...बस रसबर्धन हेत द्वैरूप...
स्पष्ट जानै तो मूल कौ बरनूं री...कमलिनी पुष्प बनै ते पूर्व एकहु कली होवै ना...सम्पूर्ण महक यामैं भरी सिमटी रह्वै...केवल कमलिनी काहे...सर्व कौ मूल की जेही परिभासा रह्वै...नवजात शिशु हो या नवप्रफुल्लित ललित नवसुवासित कस्तूरी चंदन लता बल्लरियाँ...सबनहुं को मूल ही महकै चहकै और महकावै री...परमात्मा आत्मा की महक कू चाहवै...यांकी मूल की महक कौ पान करन कै तांई मथै है यांकै आवरण कौ...मृग स्वैनाभि की महक तांई थिरकै सरकै...चकोर चंद्र तांई...घन दामिनी तांई...शिशु ममता तांई...सबनहुं कौ सबनहुं कै मूल सौं नेह पर सखी जे मूल जो स्वै में ही ब्यापै तो इतनी व्याकुलता काहे की री...आह... !
जे मूल सौं मूल में ही मिल जानै के हित...सखी...श्यामा जु गौरवर्णा होई श्यामसुंदर सौं ही अंशरूप भिन्न होई जावै...ना...स्वरूप प्राप्ति कै तांई ना...स्वरूप सौं मिलन तांई...और जे स्वरूप महक बन कै समाई रहै प्रीतम श्वासों में...जैसे...जैसे...चंदन कौ वृक्ष होवै महक सौं उफनतो पर यांकी महक कू सरसरावै कै तांई मंद वायु कौ स्पर्श आवश्यक ना...वैसे ही जे महक सदा सरसरावै है श्यामसुंदर को...अपने मूल सौं मिलन तांई... ... ...
कस्तूरी चंदनवत सुसज्जित रहै यांकै वक्ष पर और महकावै यांकी श्वासन कू...अकुलावै सिहरावै यांनै खोजन तांई...अहा !
"राजत सुंदर उदर पर,अद्भुत रेखा तीन।देखत सींवा रूप को,ललन भये आधीन।"
...सुमन सेज ते अनंत रस बिथुरे रहैं...रसदेह पर अनंत रसफूलन फूलनि सिंगार रस भरैं...निहार यांकी कुचलन मसलन सौं अनंत अनंत महक उठै है री...पर जे महक में पराग कण सने सरसैं और पराग कणन सौं भी सौरभसार उठै ऐसे के भ्रमर सम भृकुटि कटाछ सुवास दर सुवास तिलक बन सजैं लालन के ललाट ते सखी...
"तन तो सिंधु है रूप कौ,लाल नैंन मन मीन।खेलत तँह आनन्द सौं,नाभि भवँर घर कीन।"
जुही चमेली सौं सजै केश...लाख महकैं पर यांकी श्यामलता तांई ही नेह कारण श्याम भ्रमर अकुलावै...
लाख लाख सिंगारन सौं देह सुसज्जित करै सखिन पर जे महक अंग प्रत्यंग की ही हियकंवलन कू सिहरावै...अनंत जावक अल्ता कस्तूरी चंदन सौं महकावै पर यांकी मसलन से गहरे स्वरस तांई ही पियमन गहरावै...तनिक से ताम्बूली रसनहुं सौं लालित्य आवै पर अधरन की लालिमा सौं लाल एक होए जावै और सखी री...जे काजर की रेख...आह... श्याम यांकी श्यामलता सौं ही सुख पावै री...
सखिन रसबर्धन हेत जे सौरभ कौ अनंत सौरभ सौं महखानो चाह्वैं सखी...पर स्वसौरभ सौं सौरभ प्रतिपल घुलि मिलि जावै री...और इत्र बन श्रीअंगनिहुं इतरावै...बिथुरावै...एकहु होइ जावै... ... ...
सखी...जे मकरंद की भी गहरी महक रस बन रिसती रह्वै सुरतांत तरंग रंगों में और महकती रहै...आह... ... ...
अबहुं और गहरो बिस्तारूं तो सखी री...ज्ह रस भी किंचित गहरावै है ना तब एक होय कै द्वैरस महकैं...महक बन रह जावैं...ऐसी महक जिसकी खातर पुष्प पुष्पसार बन स्वै को मथ मथ स्वै होय कै स्वै में ही रम्यौ कबहुं तृषित तो कबहुं तृषा हेत अकुलावै...तब... ... ...द्वैरस द्वैरंग एक सुवास सौं महकै स्वरूप भूल स्यामल स्यामल ह्वै री...
"पुनि फल उरजन सौं लगे,प्रीतम कर छबि देत।मानो कुन्दन घटन कौं,नील कमल ढँकि लेत।"
सखी...किंचित इस फूलनि के मध्यस्थ पराग और पराग भीतर रचेबसे मकरंद सौं गहरो निरख री...जित महक ही सुवास बनी इत उत प्रत्येक पंखुरी में रम रही और यांनै यांके ताईं महकाए रही...सरसाए रही...अकुलाए रही...समाए रही... ... ...
आह...जे स्वश्रीअंगनि की सजीली रसीली महक...सुवास...आह...रम रम कै रमि रहै...रमाती रहै अद्भुत अभिन्न रस परिमल...अहा !!
"जहाँ प्रियतम तिहिं देश की प्यारी लागत पौन।प्रेम छटा जाने बिना यह सुख समुझै कौन।"
जयजयश्रीश्यामाश्याम !!
जयजय श्रीहरिदास !!
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