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संगीत विशारदा 1, उज्ज्वल श्रीप्रियाजु , संगिनी जु

ए री सखी...निरख तो जे कमल दल न्यारै ही खिलैं हैं जमुना पुलिन ते...अद्भुत गुलाबी गुलाबी...जामुनी मोगरा जुही से महके...सतरंगी मनरंगी पराग बूँदन सौं सजे धजे...स्वर्णिम ओस कणों से दमके चमके...जानै है री...यांकी जे सम्मोहन कर लेने वाली रूपछटा कैसे सलोनी छबि बन नैनों में समाए रही...अहा !
अरी सखी...जे हरे हरे रूपहले बागै और तामैं बिंधै जे पीत नील लताजाल री...सखी री...स्मायल जलतरंग पर सरसती खिलती जे सुघर दमकीली रसतरंगें...अहा... ... ...कैसे कहूँ...जामैं पसरा है मौन रसीला...छबीला...गरबीला...आहा...सरसीला...
सखी...संगीत नाद सा छिड़ रहा जैसे नि:शब्द सी रसधमनियाँ...तिल तिल तृषा को जागृत करतीं...सुनाई ना आवै ना...
आ तनिक मौन हो री...अपने में खो तो...भीतरी गहन रसीली संगीत तरंगों को श्रवण कर...किंचित सबहिं ओंज सौंज सौं निसांत होय कै निहार जे उपवन कौ...कण कण थिरकता लागै...महके सुमन सिज्या पर बतियाते...चतुरिंगनी रसांगिनी रूपहली लताएँ चटकती कलियों का तान बंधान...अहा...स्वमौन होकर श्रवण तो प्रत्येक प्राकृतिक चिन्मय गहन रसभाव संगीतमय है रह्यौ री...
अहा...रस बरस रहा...नयनों के झरोखों से...अधरों की मंद रसस्मित रागिनी से...हिय से कमल खिल रहै...कटि सौं सगरे बंधन छूट टूट रहे...और नूपुरन सौं इक इक रसध्वनि मिसरी सी घुल रही...
सखी री...अहा...संगीतज्ञ...रसज्ञ...मधुर मृदुल रस फुहारें नृत्य सी कर रहीं री...
महामौन...हाँ महामौन भी पसर रहा हो तब भी अति गहनतम उतरने पर सखी री...वो मधुरिम रसीला संगीत सुनाई आता है री...जो प्रतिपल परस बरप रहा जे सुंदर उज्ज्वल उपवन में...अहा...जैसे कोई अति*सुरयोषा*संगीत की स्वामिनी राग रागिनिन कौ रस बाँट रही हो...माधुर्य अनुरागी विरागी रसपिपासु को...संगीत शिक्षा देतीं स्वयं मंद मंथर थिरकन पुलकन से थिर थिर सुकमलिनी सी खिली घुल मिल रही हो...अहा...*संगीतविद्या विशारदा*...संगीत की स्वामिनी...सुरयोषा...अनंत गुननि की खानिनी श्यामा जु... ... ...
"निरतत रसभरे रसबिहारी।
तान तिरप गति भेद अनागति घात लेति सुकुमारी।।
थेई थेई करत धरत पग चंचल उपजत नूपुर रव झनकारी।
गावत कटि लपटावत नैंन नचावत प्रीतम प्यारी।।
मृदंग तार सुर सप्त संच मिलि तैसियै छिटकि रही उजियारी।
कोककला कल केलि झेलि रस क्रीड़त कुँवरि दुलारी।।
द्रुम बेली फूली रस बरषत चंपक बकुल गुलाब निवारी।
करत विनोद बिपिन मन भाये श्रीसरसदासि बलिहारी।।"
अहा...सखी हृदय कंवल ते जे रस नाद बन उन प्यारी के संगीतविद्या विशारद की अनंत राग रागनियों का सहज स्फुरण कराता है...जड़ता में भी उनका सरस सुरत रस गहराता समाता संगीतमय सुनाई आता है...ऐसा मधुरिम संगीत जो प्रतिपल प्रगाढ़ होता तनप्राणों में महक बन बिहरण करता है और श्वास दर श्वास मंद मंद भीतर अंतराग मौन में भी रसतरंगों पर वीणारव सा सुनाई आता है...
सखी...जटिल है पर भाव यही है कि कभी जड़ लता झारियों को भी मौन रसीली दृष्टि की झलक खनक मिलै ना...तो सहज संगीत सरगम सुनाई आने लगै...फिर जे तो प्यारी जु कौ कुंज है री...जहाँ प्यारी कौ रसीलो सजीलो प्रेममंत्र नाद बन...प्राणवायु सा कण कण...रज कण को जिला रहा...और जेही संगीत सखी री...सखियन का जीवन और प्यारे लाल जु का तो वेणु रव है जो उनके रसवपु का नित...नित नव रस सींचन है री...अहा...
सखी...प्यारे लाल जु वेणु बजाय कै जड़ चेतन सबहिंनु कौ मन हरण कर लेवैं हैं पर जब प्यारी जु को गान करत सुनै हैं ना री...तब उनको जड़ता मुर्छा आने लगती है...और प्यारी जु की रसीली संगीतरागिनियों की तरफ स्वतः खिंचे चले जाते हैं प्रीतम प्रीतिरस से भीगते उमड़ते...दृष्टिपथ पर लाड़ली जु की नृत्य संगीतज्ञ रसछबियाँ सखिन स्वरूप उनके डगमगाते सुकोमल चरणकमलों को सहलाती संवारती उन्हें प्रिया जु सम्मुख ले आतीं हैं...
सखी री...प्रिया जु स्वविस्मरित प्यारे लाल जु में सिमटी विहरित इन रसीली तान बंधानों में निमग्न समक्ष विराजित श्यामसुंदर को ना देख पातीं और श्यामसुंदर तो जैसे इन रसीली नि:शब्द कर देने वाली ध्वनि...रसधमनियों में डूबने लगते हैं...भान ही ना रह्वै...परस्पर डूबे हुए विहरित से होवैं...तब सखीगण ही जैसे तैसे दोऊन रस संगीत विशारदों कौ नेह करि संभारैं जिरावैं हैं री...गहराते प्यारी जु के सुरतांत सुरों को सुहृद रागनियाँ तान दे दे कै पुकारैं मनुहारैं...'तनिक निरखो प्यारी...बलिहारि छबिन तें...भृकुटि तनक सौं...हेरो री लाल मुरारि...अहा... ... ...
"संगीत सागर गुननि आगर रूप उजागर रसिक राई।
गावत तान तरंग अंग अंग रस बरसावत प्यारी जू कौ सुजस कहत लाल लड़ाई।।
जानति जुवती दाइ उपाइ उपजावत भाइ भुज भरनि करनि आतुर चातुरताई।
श्रीबिहारिनिदासि की स्वामिनि स्यामहिं हँसि रस बस किये रीझि रहै रसिक चरननि लपटाई।।"
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास श्रीहरिदास श्रीहरिदास !!

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