Skip to main content

दीनन कौ नाथ , बाँवरी जु

*दीनन कौ नाथ*

    करुणासिन्धु श्रीचैतन्यदेव ने अपनी शिक्षा के माध्यम से प्रेमाभक्ति प्राप्ति का सहज अंग दीनता को बताया है। जिस प्रकार वर्षा का जल सभी ऊंचाइयों का त्याग करता हुआ ढलान की ओर बह निकलता है , उसी प्रकार प्रेमाभक्ति भी दीन भाव से सहज में ही प्राप्त हो जाती है। भक्ति ही सभी सद्गुणों का मूल है जहां भक्ति है वहीं समस्त सदगुण अपना निवास बना लेते हैं। भक्ति रूपेण अंकुर हृदय में उदित हो जाये तो दीनता के सँग अति शीघ्र पोषित होकर भक्ति रूपी लता विस्तार पाने लगती है।पाषाणवत हृदय में भक्ति का अंकुर आरोपित ही नहीं हो सकता। जहां दीनता का प्राकट्य न हो वहां अहंकार का साम्राज्य ही खड़ा रहता है। जहां अहंकार है वहां स्वयम का विसर्जन असम्भव है और प्रेमाभक्ति तो वास्तव में स्वयम का विस्मरण ही है। जहां प्रेमी अपने प्रेमास्पद के चिंतन में ही तल्लीन है कि वह धीरे धीरे स्वयं (अहंकार) को ही प्रियतम की प्रेमाग्नि में होम करके इस अग्नि में क्षण प्रतिक्षण आहुति देता रहता है कि मेरे हृदय से प्रियतम प्रेम की यह अग्नि कभी शांत न हो जाये। यहां स्वयं का भस्मीभूत होना ही प्रेम का प्राकट्य है।

     दीनता एवं सहिष्णुता का मूल उद्गम ही भक्ति है। स्वयं श्रीकिशोरी जु ही भक्ति स्वरूपा हैं जो जीव के हृदय में भक्ति रस से श्रीप्रभु को आह्लादित करती रहती हैं। किसी तुच्छ जीव की ऐसी सामर्थ्य ही कहाँ है जो श्रीहरि को क्षणिक आनन्द भी प्रदान कर सके। जिस हृदय में भक्ति का प्राकट्य है वहां करुणा तथा सहिष्णुता स्वभाविक ही है। एक वैष्णव में यह सभी गुण विद्यमान रहते हैं। वह स्वयम को तृण से भी हीन समझकर, करुणा से परिपूर्ण, सहनशील होता है तथा सदा ही हरिनाम का गायन करता रहता है। इन सब सद्गुणों का प्रकट होना ईश्वर की विशेष अनुकम्पा भक्ति द्वारा ही होता है। जहां जो गुण प्रकट है वह उत्तरोत्तर वृद्धि की प्राप्ति हेतु नित्य अभाव अवस्था में ही रहता है। रसिक जन , भक्त जन दीन होते हुए भी स्वयं को दीनता से रहित पाते हैं , क्योंकि भक्ति महारानी का निवास उनकी हृदयस्थली हो चुकी है तथा वह प्रेमाभक्ति नित वर्धनशील है इसलिए सर्वगुण सम्पन्न होते हुए भी सर्वथा अभाव अर्थात अतृप्ति को प्राप्त है।

    हे करुणासिन्धु पतितपावन गौरसुन्दर!आपके कोमल पादपदमों में यही विनय है कि नाथ अपने भक्तों , अपने प्रेमियों का सँग सदैव प्रदान कीजिये जिनकी चरण रज से अभिषिक्त होकर मुझसे अधम जीव में भी उनके आचरण अनुशीलन की लालसा उदित हो। भजनानन्दी भक्तों का सँग दीजिये जिससे इस भजन हीन हृदय को नाम रस का कुछ आस्वादन हो सके। हे नाथ ! आप सभी वैष्णव जन में अपनी शक्ति सहित निवास करते हो। इनकी चरण धूलि में धूसरित हो मेरे हृदय में संचित अहंकार रूपी मल का मार्जन हो सके , आपकी प्रेमाभक्ति को प्राप्त कर सकूँ। हे *दीनन को नाथ* यह सब भी आपकी कृपा द्वारा ही सम्भव है। श्रीगौरसुन्दर श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु जी की जय हो! श्रीहरिनाम संकीर्तन की जय हो! श्रीहरि के प्रिय समस्त वैष्णव वृन्द की जय हो!

हरि जी ! दीनन कौ तुम प्यारे
करुणाकर स्वभाव होय कोऊ अवगुण कहाँ विचारे
हस हस पतित सबहुँ कंठ लगाय जो आय शरण तिहारे
दासी बाँवरी कृपा एहि चाहवै क्षण जावै न स्मरण बिना रे
नामरस अमृत की वर्षा होवै ऐसो गाओ दोऊ हाथ उठा रे
हरि हरि हरि रस पावें नाथ सब ऐसो बाट कृपा की निहारें

जय जय श्रीगौरहरि

Comments

Popular posts from this blog

युगल स्तुति

॥ युगल स्तुति ॥ जय राधे जय राधे राधे, जय राधे जय श्री राधे। जय कृष्णा जय कृष्णा कृष्णा, जय कृष्णा जय श्री कृष्णा॥ श्यामा गौरी नित्य किशोरी, प्रीतम जोरी श्री राधे। रसिक रसिलौ ...

वृन्दावन शत लीला , धुवदास जु

श्री ध्रुवदास जी कृत बयालीस लीला से उद्घृत श्री वृन्दावन सत लीला प्रथम नाम श्री हरिवंश हित, रत रसना दिन रैन। प्रीति रीति तब पाइये ,अरु श्री वृन्दावन ऐन।।1।। चरण शरण श्री हर...

कहा करुँ बैकुंठ जाय ।

।।श्रीराधे।। कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं नंद, जहाँ नहीं यशोदा, जहाँ न गोपी ग्वालन गायें... कहाँ करूँ वैकुण्ठ जाए.... जहाँ नहीं जल जमुना को निर्मल, और नहीं कदम्ब की छाय.... कहाँ ...