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ऐसी जिय होत जो जिय सौं जिय मिलै , संगिनी जु

"नीलगगन गौरचाँद"
...श्वेतरसचोरा लालाघोरा...

'लाल की रूप-माधुरी नैननि निरखि नैकु सखी'
अहा !!कबहुं निरखि हौ री...भोर समय नीलगगन की गोद में गौरचाँद...अहा !!
आ बैठ तनिक निहार री...सुबह कौ नीलो नीलो निश्चल उज्ज्वल रसीलो अम्बर री...और यांकी गोद में ज्युं किंचित लजा कर शरमा कर गौर चाँद...आह... ... ...!
"ऐसी जिय होत जो जिय सौं जिय मिलै तन सौं तन समाइ लैहुँ तौ देखौं कहा हे प्यारी।
तोही सौं हिलग आँखें आँखिन सौं मिली रहैं जीवत कौ यहै लहा हो प्यारी।।
मोकौं इतौ साज कहाँ री हौं अति दीन तुव बस भुव छेप जाइ न सहा हो प्यारी।
श्रीहरिदास के स्वामी स्याम कहत रखि लै री बाहु बल हौं बपुरा काम दहा हो प्यारी।।"
सखी री...
ऐसो लगै जैसे सगरी रससम्पति लुटाए दी और चमक उठह्यौ ज्ह नीलगगन हरख रह्यौ निरख रह्यौ घेर रह्यौ गौरचंद्र को...भरि भरि लेवै झीनी गौरता लिए...पीताम्बर में छुपाए लेवै है लजीली सजीली सगरी चाँदनी कू...जैसे सुकुमल पंखुरियों के मध्यस्थ मकरंद कू पराग...ज्युं अंगराग अंगनि समाए...जित कस्तुरी मृगनाभि सौं देह महकाए...
'प्रीतम रहै प्रिया मन पीकौ।
सखी रहै दोउनि मन लीयें रंग बढ़ै अति नीकौ।।'
सखी...पूर्ण रात्रि कौ ज्ह चंद्र तारागन अलंकारों से सुसज्जित स्वर्णिम आभा लिए गहरे नीले अम्बर पर अपनी रसोमयी चाँदनी...नेहभरी अंगकांति...करूणामयी सौरभता...छिटकाता रहा... ... ...
ज्ह नीलो रसीलो आसमान जो सुबह ते गौरचाँद कौ क्रोड़ में सजाए लेवै है...पूर्ण दिवस यांके रस कौ प्यासो रह्वै है...पूर्ण रात्रि यांके तारागन स्वर्णिम श्रृंगार सौं खेलै और बिथुरावै है और तादिवस यांनै प्रेमालिंगन में लिए हुए भी रसनहुं कौ हियो बसावै बरसावै है री...
भोर में ज्ह सब अलंकार रश्मियाँ समेट लेवैं हैं और युगल प्रेम की बलिहारी संगिनी सखियाँ अनंत सरस रस की सम्पत्ति कौ सिमटते सिमटते सहेज लेवैं हैं...नयो सिंगार धरावन तांई...
सखी...गौरचाँद कू नेहरस की पूर्ण नीली चादर औढ़ावैं हैं...जानैं क्यों...रसबर्धन हेत री... ... ...
'सबसों हित निस्काम मति'
नीलगगन ज्ह रस सौं छकौ भरौ पूर्ण दिवस सखिन संग गौरांगी कौ खेलतो निहारै...निहारै...निहारै है...कबहुं नीलिमा गहरावै तो तनिक स्वर्णलता भरि कै रश्मियाँ गौरांगी खिलावैं...कबहुं घन बन थिरकै तो दामिनी निरखै चपलताई सौं...सगरा दिन लुक्का छिप्पी कौ खेल होवै...
दिन ढलै ते नीलगगन रसलोभी होय कै गौरांगी प्रिया कू खोजन लागै...रसीलो रश्मियों संग लाड़ लड़ावै...गौररसचोरा लाल लाल होय जावै है री...किंचित गौरचंद्र की छाया मात्र कै तांई तरसन लागै और...और...गहरावै और अंधियारो होय जावै...लालाघोरा...आह !...स्वैरसनहुं की खातर तब कारो अंधियारो होय के गौरचाँद कौ निहारन सुख पावै...
सखी री...तब ज्ह अलंकृत गौरचाँद पुनः हुलसै बिलसै यांकै संग...रस लुटावै...रसनहुं की चाँदनी सौं नहलावै है यांनै... ... ...फिर नई भोर में नित नवेलो नीलगगन गौरचाँद को गोद लै इतरावै... ... ...अहा !!
'गौर स्याम कौ प्रेम इकौना बिरले रसिक जू चीन्है।
रस पुनि रूप सवादिनु वृंदावन हित द्वै वपु कीन्हैं'
जयजय श्रीश्यामाश्याम जी !!
श्रीहरिदास !!

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