*कामनाशून्य हृदय*
जगतोन्मुख हृदय में जड़ीय कामनाएँ क्षण प्रति क्षण जाग्रत होती रहती हैं। वहीं भगवतोन्मुखी हृदय में सदैव श्रीहरि से प्रेम की , उनकी सेवा की कामनाएँ उदित होती रहती हैं। यहाँ कामनाशून्य होने का अर्थ है भौतिक कामनाओं से निवृति होना तथा भगवत सेवा की कामनाओं के उदित होने से है। जीव के चँचल हृदय सागर में भौतिक कामना रूपी तरंगे अशांति की मूलक हैं जिससे वह जीव विषय वासनाओं के ताप से ही अपना समस्त जीवन व्यर्थ कर देता है। किसी क्षण यदि भगवत कृपा से यह हृदयंगम हो जावै कि उसका जीवन इस भवसागर में डूबने हेतु नहीं है वरन श्रीहरि की अतिकृपा से प्राप्त इस जीवन का सदुपयोग तो श्रीहरि की आराधना में ही है तब इस सागर की तरंगें शांत होने लगती हैं अर्थात भगवत चिंतन ही जीव की भौतिक कामनाओं , विषय लालसा को समाप्त करने में सक्षम है।
जड़ वस्तुओं से सम्बन्ध रखने पर हृदय में भौतिक कामनाएँ प्रकट होती रहती हैं। धन, स्त्री, पुत्र ,मान बड़ाई की तृष्णा जीव को कभी भक्ति पथ पर सहज रूप से बढ़ने नहीं देती है। श्रीहरि से भक्ति प्राप्ति की कामना करके ही मनुष्य भौतिक लालसाओं से तृष्णाओं से ऊपर उठ पाता है। कँचन तथा कामिनी के मोह पाश में बंधा जीव किस प्रकार श्रीहरि की भक्ति प्राप्त कर सकता है। ईश्वर से सदैव भक्ति प्राप्ति की ही कामना करनी चाहिए। भगवत स्मरण, भगवत चिंतन ही जीव को वैराग्य प्रदान कर सकता है। वैराग्य के लिए ग्रह त्याग आवश्यक न होकर हृदय से ही भौतिक सुखों का त्याग वैराग्य है। जीवन यापन के लिए आवश्यक कर्म करना जिससे भजन भक्ति में बाधा न हो तथा भक्ति विपरीत कर्मो का धारण ही वास्तविक वैराग्य है। इसी वैराग्य रूपी धन के आश्रित होकर नाम भक्ति का रसास्वादन सम्भव है तथा यह भी भगवत कृपा से ही प्राप्त है।
हे करुणाकर कल्मषहारी गौरहरि! इस हृदय पर भी अपनी सहज करुणा की वृष्टि कीजिये जिससे समस्त कामनाओं का नाश होकर आपके चरणारविन्दों की भक्ति प्राप्ति की ही कामना शेष रह जावे। यह हृदय विषय समुद्र से निकल आपके नाम रस का बून्द बून्द आस्वादन कर सके। भौतिक सम्बन्धों से उपराम होकर यह जान सके कि मेरा आपसे ही अनित्य सम्बन्ध है। हे नाथ!मैं स्वयं को अति निर्बल अनुभव कर आपके चरणों को ही अपने हृदय में धारण कर सकूँ तथा आपकी भक्ति को प्राप्त कर सकूँ। आपके नाम को प्राप्त कर सकूँ। हे गौरहरि आपकी सदा जय हो! आपके कोटि कोटि मधुर नामों की जय हो!
नाथ मोहे हरि नाम रस दीजौ
पाप त्रिताप सकल मेरो नासे कृपा कोर अब कीजौ
गौर निताई नाम रटे जिव्हा जितनी स्वासा आवै
तुम्हरी शरण पड़े जो नाथा माया कित भरमावै
यही अरजोई करे बाँवरी नाथ शरण रख लीजौ
नाथ मोहे हरि नाम रस दीजौ
जग जंजाल निकालो नाथा हरि प्रेम हिय आवै
नाम भजन की भिक्षा दीजौ और कछु न बाँवरी चाह्वै
गौर निताई नाम धन मेरो धनवान मोहै अब कीजौ
नाथ मोहे हरि नाम रस दीजौ
निज जन की कछु सेवा दीजौ मिटे मेरो अधमाई
चरणन धूर बनाये राखो चाहूँ न मान बड़ाई
कोऊ नेम विधि न जाने बाँवरी किस विध साहिब रीझो
नाथ मोहे हरि नाम रस दीजौ
हरि नाम को व्यसन लगावो षड रस मोहे न भावै
नाम रस ऐसो भिगोये राखो बिन नाम न स्वासा आवै
भिक्षा पुनि पुनि मांगें बाँवरी देर न अबहुँ कीजौ
नाथ मोहे हरि नाम रस दीजौ
पाप त्रिताप सकल मेरो नासै कृपा कोर अब कीजौ
जय जय श्रीगौरहरि
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