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हरिनामोन्माद , बाँवरी जु

*हरिनामोन्माद*

कलियुग में श्रीहरिनाम संकीर्तन यज्ञ द्वारा जीव को भगवत प्रेम सुलभ करवाने वाले श्रीमन चैतन्य महाप्रभु जी की जय हो! निर्मल भक्ति निर्मल हृदय में ही वास करती है। श्रीहरिनाम रस केवल शुद्ध हृदय ही पान कर सकता है। जन्मों से जड़ता में बंधा हुआ जीव जब भव ताप से छटपटाता हुआ हरिआश्रित होता है तो यही भगवत नाम उसके हृदय को भगवत रस से सराबोर कर विशुद्ध नाम प्रदान करता है।

   नाम के प्रभाव से कल्मष नाश हो हृदय शुद्ध होता है , भगवत रस का स्पर्श, भगवत रस का उन्माद जब शुद्ध हृदय में उठता है तो अश्रु बन बह निकलता है। जब जीव अपने प्राण प्यारे प्रियतम के विरह में रोता है तब यह अश्रु पीड़ा के ना होकर भगवत रस का वर्धन करते हैं। भगवत विरह में निकले अश्रु भक्ति का निर्मल रस है। रस का आह्लाद है। ऐसा रस श्रीमन चैतन्यदेव की लीला में साक्षात प्रकट है , जब गौरहरि अपने प्रभु के विरह में  अश्रुपात करते हैं। उनके अश्रु नेत्रों से पिचकारी के समान बहते हैं। श्रीहरि विरह में निकलते हुए अश्रु मणी माणिक से भी अधिक अमूल्य हैं , क्योंकि मणी माणिक तो जगत की भौतिक वस्तु है परन्तु निर्मल हृदय से बहते हुए अश्रु तो चिन्मय रस के बहाव से निष्कासित होते हैं। भक्ति प्राकट्य का एक लक्षण है अश्रु। भगवत विरह में प्रवाहित एक अश्रु तो किसी भाग्यवान जीव में ही प्रकट होते हैं।जिस हृदय में अपने प्रभु से विरह जीवंत हो जाए उस हृदय के समान पवित्र कुछ नहीं है।

सोई जन बड़भागी जिन हिय हरि बिरहा पाई
हरि हरि नाम जिव्हा भजै होत सदा सुखदाई
हरि चरणन सों प्रीत दिन अपने उर माँहि लाई
मो सो कौन पातकी विषयन रस रह्यो भाई
हरि चरणन सों नेह ना लाग्यो उमर रह्यो गमाई
हरि तुम्हीं कृपा करो अबहुँ हाथ पकरि लेह जाई

     हम सब किन्हीं दिव्य संत की कथा में कई बार जाते हैं। वहां भगवतवाणी हमारे हृदय को स्पर्श करती है तो भगवत रस के प्रभाव से अश्रु सहज ही बह निकलते हैं। परन्तु उस रस से स्पर्श छूटते ही पुनः लौकिक जड़ता हमारे हृदय को छू लेती है तथा भगवत रस का यह उन्माद हम विस्मृत कर देते हैं। वह जीव बहुत भाग्यवान है जो भौतिक लालसाओं तो त्याग कर हरि विरह में अश्रु प्रवाहित करता है।

भगवत रस का उन्माद हैं अश्रु।

भगवत रस का स्पर्श हैं अश्रु।

भगवत रस का आह्लाद हैं अश्रु।

भगवत रस का प्रसाद हैं अश्रु।

भगवत विरह की पूंजी हैं अश्रु।

भगवत रस की कुंजी हैं अश्रु।

भगवत विरह की पुकार है अश्रु।

भगवत प्रेम उपहार है अश्रु।

हृदय की निर्मलता है अश्रु।

भक्ति की उज्जवलता है अश्रु।

भगवत विरह का ताप है अश्रु।

विरहणी का संताप है अश्रु।

  हे करुणावतार गौरहरि! मुझ पतित का हृदय पाषाण के समान कठोर है। इस कठोर हृदय से आपके प्रेम भक्ति रस का आस्वादन सम्भव न होगा। हे प्रेमावतारी प्रभु ! इस पाषाण हृदय को कोमलता आप ही प्रदान कर सकते हो। जन्म जन्म की जड़ता ने इस हृदय को ऐसे आवरित किया हुआ है कि आपके सहज प्रेम, आपकी सहज करुणा का स्पर्श इस हृदय से नहीं हो पा रहा। हे गौरसुन्दर! कब इस हृदय में आपके विरह का ताप उदित होगा। कब इन नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होंगे। हे नाथ! मेरे कठोर हृदय में अणुमात्र भी भक्ति नहीं है, परन्तु आपको अपना सर्वस्व मान लेना ही इस हृदय को आपकी करुणा में डुबो सकता है। हे गौरांग प्रभु! मुझ पतित को अपने कोमल पादपदमों का अनुराग प्रदान कीजिये ताकि आपकी कृपा से मैं भक्ति रस का एक कण आस्वादन कर पाऊँ। नाथ मेरी पतितता को भूलते हुए अपने पतितपावन नाम को साकार कीजिये।

जय जय गौरहरि

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